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च० खण्ड ] तीसरा अध्याय : स्त्रियों की स्थिति २४९
स्त्रियों को दृष्टिवाद सूत्र पढ़ने का निषेध है। इस सूत्र में सर्वकामप्रद विद्यातिशयों का वर्णन है, तथा स्त्री स्वभाव से दुर्बल, अहंकार-बहुल, चंचल-इन्द्रिय और मानस से दुर्बल होती है, अतएव महापरिज्ञा, अरुणोपपात आदि और दृष्टिवाद पठन करने का उसे निषेध है।' वास्तव में देखा जाय तो जैन और बौद्ध धर्म में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों के लिए अधिक कठोर संयम और अनुशासन का विधान है। जैनसूत्रों में उल्लेख है कि तीन वर्ष की पर्यायवाला निम्रन्थ तोस वर्ष की पर्यायवाली श्रमणो का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष की पर्यायवाला निर्ग्रन्थ साठ वर्ष की पर्यायवाली श्रमणी का आचार्य हो सकता है। ___ ध्यान रखने की बात है कि स्त्रियों के सम्बन्ध में जो निन्दासूचक उल्लेख ऊपर किये गये हैं, वे सामान्यतया साधारण समाज द्वारा मान्य नहीं हैं, इससे यही जान पड़ता है कि स्त्रियों के आकर्षक सौन्दर्य से कामुकतापूर्ण साधुओं की रक्षा करने के लिए, स्त्री-चरित्र को लांछित करने का यह प्रयत्न है। अन्य धर्मियों के तत्कालीन लेखों के अध्ययन से यह प्रतीत नहीं होता कि स्त्रियां एकदम से कैसे दुनिया भर के दोषों की खान हो गयीं, सो भी विशेषकर जैन और बौद्धकाल में। बृहत्संहिता के कर्ता वराहमिहिर ने बड़े साहसपूर्वक उल्लेख किया है-"जो दोष स्त्रियों में बताये जाते हैं वे पुरुषों में भी मौजूद हैं। अन्तर इतना ही है कि स्त्रियां उन्हें दूर करने का प्रयत्न करती हैं जब कि पुरुष उनसे बेहद उदासीन रहते हैं। विवाह की प्रतिज्ञाएं वर-वधू दोनों ही ग्रहण करते हैं। लेकिन पुरुष उन्हें साधारण मानकर चलते हैं, जब कि स्त्रियां उन पर आचरण करती हैं। काम-वासना से कौन अधिक पीड़ित होता है ? पुरुष-जो वृद्धावस्था में भी विवाह करते हैं-या स्त्री-जो बाल्यावस्था में विधवा हो जाने पर भी
५६, रिचार्ड श्मित द्वारा सम्पादित, लीपज़िग, १८९३ । अपनी पत्नी की गुलामी करनेवाले छह अधम पुरुषों के लिये देखिये निशीथभाष्य १३.४४५१ ।
१. बृहत्कल्पभाष्य पीठिका, १४६; तथा व्यवहारभाष्य ५.१३९।
२. व्यवहार ७.१५-१६; ७.४०७ । बौद्धधर्म में आठ गुरुधर्मों के अन्तर्गत बताया गया है कि यदि कोई भिक्खुनी सौ वर्ष की पर्यायवाली हो तो भी उसे अभी हाल के प्रव्रजित भिक्खू का अभिवादन करना चाहिए और उसे देखकर उठना चाहिए, चुल्लवग्ग, १०,१.२ पृ० ३७४-५ ।