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________________ २४६ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ च० खण्ड यदि कदाचि रहने लगी, तीसरी अपने पति के किसी मित्र के घर पहुँच गयी, लेकिन चौथी पीटे जाने पर भी वहीं रही। पति अपनो चौथो पत्नी से बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उसे गृहस्वामिनी बना दिया । स्त्रियों के सम्बन्ध में कहा है कि जैसे मुर्गी के बच्चे को बिलाड़ी से सदा भय रहता है, वैसे ही ब्रह्मचारी को स्त्रियों से भयभीत रहना चाहिए । ब्रह्मचारी को चाहिए कि स्त्रियों के चित्रों से शोभित भित्ति अथवा अलंकारों से शोभित नारी की ओर न देखे । उस ओर दृष्टि पड़ भी जाये तो जैसे हम सूर्य को देखकर दृष्टि कर लेते हैं, वैसे हो भिक्षु को भी अपनी दृष्टि संकुचित कर लेनी चाहिए । लूली, लंगड़ी अथवा नकटी और बूची ऐसी सौ. वर्ष की बुढ़िया से भी भिक्षु को दूर ही रहना चाहिए। 3 स्त्रियों को प्रकृति से विषम, प्रियवचनवादिनी, कपट प्रेमगिरि की तटिनी, अपराधसहस्र की गृहिणी, शोक की उत्पादक, बल की विनाशक, पुरुषों का वध-स्थान, बैर की खानि शोक का शरीर, दुश्चरित्र का स्थान, ज्ञान की स्खलना, साधुओं की वैरिणी, मत्त गज की भाँति काम के परवश, बाघिन की भाँति दुष्ट, कृष्ण सर्प के समान अविश्वासनीय, वानर की भाँति चंचल, दुष्ट अश्व की भांति दुर्दम्य, अरतिकर, कर्कशा, अनवस्थित, कृतघ्न आदि विशेषणों से सम्बोधित किया है । उसे नारी कहा गया है, क्योंकि उसके समान पुरुषों का कोई अरि नहीं ( नारी समा न नराणं अरोओ ), अनेक प्रकार के कर्म और शिल्प द्वारा वे पुरुषों को मोहित करलेती हैं ( नाणाविहेहिं कम्मेहिं सिप्पइया - एहिं पुरिसे मोहंति ) इसलिए उन्हें महिला कहा है, पुरुषों को मत्त बना देने के कारण (पुरिसे मत्ते करेंति ) उन्हें प्रमदा, महान् कलह करने के कारण ( महंतं कलिं जणयंति ) महिलया, पुरुषों को हावभाव आदि द्वारा मोहित करने के कारण ( पुरिसे हावभावमाइएहिं रमंति) रामा, शरीर में राग-भाव उत्पन्न करने के कारण (पुर १. बृहत्कल्पभाष्य ५, ५७६१ । २. उत्तराध्ययनटीका १, पृ० ९-अ के एक उद्धरण में माता, बहन और कन्या के साथ एकान्त में एक आसन पर बैठने का निषेध है । अंगुत्तरनिकाय १, १, पृ० ३ में कहा है कि स्त्रीरूप, स्त्रीशब्द, स्त्रीगंध, स्त्रीरस और स्त्रीस्पर्श पुरुषों के चित्त को बरबस आकर्षित करता है । ३. दशवैकालिकसूत्र ८.५४-६ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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