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________________ च० खण्ड ] पहला अध्याय : सामाजिक संगठन २२५ होता है कि दोनों को आदरणीय स्थान प्राप्त था।' यह भी ध्यान दने योग्य है कि महावीर को जैनसूत्रों में माहण अथवा महामाहण, महागोप. महासार्थवाह आदि कहकर सम्बोधित किया गया है । ब्राह्मणों के सम्बन्ध में जैन मान्यता बौद्धों की भांति, जैन आचार्यों ने भी जन्म की अपेक्षा कर्म के ऊपर अधिक जोर दिया है । जैनसूत्रों का कथन है कि सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता, कुश-चीवर धारण करने से कोई तापस नहीं होता, बल्कि हर कोई समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है; वास्तव में कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से हो मनुष्य शूद्र कहा जाता है। हरिकेशीय अध्ययन में हरिकेश नामक चांडाल मुनि को कथा आती है। हरिकेश विहार करते-करते एकबार किसी ब्राह्मण के यज्ञवाटक में गये, और यज्ञ के लक्षण बताते हुए उससे कहा-"वास्तविक अग्नि तप है, अग्निस्थान जीव है, श्रुवा ( चम्मचनुमा लकड़ी का पात्र जिसमें आहुति दी जाती है ) मन, वचन और काय का योग है, करीष (कंडे की अग्नि) शरीर है, समिधा कर्म है, होम, संयम, योग और शान्ति है, सरोवर धर्म है और वास्तविक तीर्थ ब्रह्मचर्य है।" तात्पर्य यह है कि जैनों ने वर्ण और ____१. आचारांगचूर्णी, पृ० ६३ । तुलना कीजिए संयुत्तनिकाय, समणब्राह्मणसुत्त, २, पृ० १२६ आदि; २३६ आदि; ४, पृ० २३४ श्रादि; ५, पृ० १ ।। २. सूत्रकृतांग ६.१ । मिलिन्दप्रश्न (हिन्दी अनुवाद, पृ० २७४) में बुद्ध को ब्राह्मण कहा है। ३. उपासकदशा ७, पृ० ५५ । ४. उत्तराध्ययन २५.२६ आदि । बौद्धों ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं। उनका कहना है कि जन्म और जाति अहंकार पैदा करते हैं, गुण ही सबसे श्रेष्ठ है; खत्तिय, बंभण, वेस्स, सुद्द, चांडाल और पुक्कस देवताओं की दुनिया में जाकर सब एक हो जाते हैं, यदि इस लोक में उन्होंने धर्म का प्राचरण किया हो, सुत्तनिपात, १.७, ३, ६, फिक; द सोशल ऑर्गनाइज़ेशन इन नौर्थ-ईस्ट इण्डिया इन बुद्धाज़ टाइम, पृ० २६; मजूमदार, कॉरपोरेट लाइफ इन ऐंशियेट इण्डिया, पृ०-३५४-६३ । ५. उत्तराध्ययन, १२.४४ श्रादि । दीघनिकाय १, कूटदन्तसुत्त, १५ जै० भा०
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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