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चौथा अध्याय : उपभोग
जूते
वस्त्रों को भाँति जूतों का उल्लेख भी जैन सूत्रों में मिलता है । बृहत्कल्पभाष्य में जैन साधुओं के लिए उपयोग में आने वाले जूतों का विधान किया गया है । वैसे जैन साधुओं को चर्म रखने का निषेध है, लेकिन अपवाद मार्ग का अवलम्बन कर, मार्गजन्य कंटक, तथा सर्प और शीत के कष्टों से बचने के लिए, रुग्ण अवस्था में अर्श की व्याधि से पीड़ित होने पर, सुकुमार राजा आदि के निमित्त, पैर में फोड़ा आदि हो जाने पर, आँखें कमजोर होने पर, बालसाधुओं के निमित्त, तथा अन्य कोई इसी तरह का कारण उपस्थित हो जाने पर, जूते धारण करने का विधान है । तलिय जूतों का उपयोग मार्ग में गमन करते समय, कंटकों से रक्षा करने के लिए किया जाता था । इन जूतों को पहनकर साधु, चोर अथवा जंगली जानवरों से अपनी रक्षा के लिये शीघ्रता से गमन कर सकते थे । सामान्यतया साधुओं को एकतले के जूते ( एगपुड ) धारण करने का विधान है, लेकिन वे चार तले के जूते भी पहन सकते थे । सकलकृत्स्न (सकलकसिण) जूते कई प्रकार के होते थे । पुडग ( पुटक ) अथवा खल्लक' जूते सर्दी के दिनों में पहने जाते थे और उनसे बिवाई (विवचि) की रक्षा हो सकती थी । अर्धखल्लक आधे पैर को और समस्तखल्लक सारे पैर को ढंक लेते थे । जो जूता उंगलियों को ढंककर ऊपर से पैरों को ढंक लेता, उसे वग्गुरो कहते थे । पांव की उंगलियों के नखों की रक्षा के लिए कोसग का उपयोग होता था । खपुसा' घुटनों तक पहना जाता था । इससे सर्दी, सांप, बर्फ, और काँटों से रक्षा हो सकती थी । अर्धजंघा आधी जंघा को और जंघा समस्त जंघा को ढंकने वाले जूते कहलाते थे । चमड़े की रस्सियों को गोफण कहा जाता था । चमड़े के अन्य उपकरणों में वर्द्ध ( टूटे हुए तलिय आदि जूतों को जोड़ने के लिये ), कृत्ति ( फल आदि को
तृ० खण्ड ]
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१. खल्लकबंध श्रादि जूतों का उल्लेख महावग्ग ५.४.१०, पृ० २०५ में मिलता है।
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२. यह ईरानियों का 'काफिस' अथवा मध्य एशिया का 'कापिस किपिस' जूता हो सकता है, डाक्टर मोतीचन्द का जनरल ऑव द इण्डियन सोसायटी ऑव द ओरिटिएल आर्ट, जिल्द १२, १६४४ में लेख ।