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२१४ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज ... [तृ० खण्ड कटिप्रमाण होता है। इससे उग्गहणंतग के दोनों छोर ढंक जाते हैं। कटि में इसे बाँधा जाता है और आकार में यह जांघिये की भाँति होता है । भगन्दर और अर्श ( बवासीर ) इत्यादि से पीड़ित होने पर यह विशेष उपयोगी होता था' ३ अद्धोरुग ( उरुकाध)-इससे कमर ढंक जाती है तथा यह उग्गहणंतग और पट्ट के ऊपर पहना जाता है। छाती के दोनों ओर कसकर यह बाँध दिया जाता है। ४ चलनिका-घुटनों तक आनेवाला बिना सीया वस्त्र । ५ अभितरनियंसिणी-कमर से लगाकर आधी जांघों तक लटका रहने वाला वस्त्र । वस्त्र बदलते समय साध्वियाँ इसका उपयोग करती थीं, जिससे वस्त्ररहित अवस्था में देखकर लोग परिहास न कर सकें। ६ बहिनियंसिणी-घुट्टियों तक लटका रहनेवाला वस्त्र । डोरी के द्वारा इसे कटि में बाँधा जाता था।
इसके अलावा, अन्य वस्त्र भी शरीर के ऊपरी भाग में पहने जाते थे:-१ कंचुक-वक्षस्थल को ढंकने वाला बिना सीया वस्त्र, जो कमर के दोनों तरफ कसकर बाँधा जाता है। कापालिक के कंचुक के समान यह अढ़ाई हाथ लम्बा और एक हाथ चौड़ा होता है। २ उक्कच्छिय ( औपकक्षिकी)-यह कंचुक के समान ही होता था। यह चौकोर और डेढ़ हाथ का होता था। इससे छाती, दक्षिण पाश्च और कमर ढंक जाती थी, तथा वाम पाश्व की भोर इसकी गांठ लगती थी। ३ वेगच्छिय (वैकक्षिकी)-कंचुक और उक्कच्छिय दोनों को ढंकनेवाला वस्त्र । ४ संघाटी-संघाटी चार होती थीं । एक दो हाथ की, दो तीन हाथ की और एक चार हाथ की । पहली संघाटो प्रतिश्रय ( उपाश्चय ) में, दूसरी और तीसरी बाहर जाते समय और चौथी समवशरण में पहनी जाती थी। ५ खंधकरणी-यह चार हाथ लम्बा और चौकोर वस्त्र तेज वायु आदि से रक्षा करने के लिए पहना जाता था। इससे कंधा और सारा शरीर ढंक जाता था। इसे किसी रूपवती साध्वी की पीठ पर रखकर उसे बौनी बनाकर दिखाया जा सकता था।
१. बृहत्कल्पभाष्य ३.४१०२ ।
२. वही ३.४०८२-६१ तथा टीका; आचारांग २, ५.१.३६४; निशीथभाष्य २.१४००-१४०७ । इस सम्बन्ध में मुरुण्ड राजा के हस्ति तथा नर्तकी श्रादि के दृष्टांत के लिये देखिये बृहत्कल्पभाष्य ३.४१२१-२८ ।