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________________ तृ॰खण्ड ] चौथा अध्याय : उपभोग २१३ जो साधु अचेल ( वस्त्ररहित ) नहीं रह सकते थे, उन्हें अपने गुह्य प्रदेश को आच्छादित करने के लिए कटिबन्ध ( अथवा अग्गोयर) रखने का विधान है। यह वस्त्र चार अंगुल चौड़ा और एक हाथ लम्बा होता था। आगे चलकर इस वस्त्र को चोलपट्टक कहा जाने लगा। बौद्ध साधुओं की भांति जैन साधुओं के लिए भी रंगे हुए :वस्त्र धारण करने का निषेध था। जैन साध किनार ( दसा) वाले वस्त्र भी धारण नहीं कर सकते थे। उनके लिए विधान है कि थूणा ( थानेश्वर) में कृत्स्न ( अखण्ड) वस्त्र पहनना चाहिए, लेकिन किनारी काटकर ही । आवश्यकता पड़ने पर तालाचर ( नट, नतक आदि ), देवछत्रधारी, वणिक, स्कन्धावार, सैन्य, संवर्त ( चोरों के भय से किसी नायक के नेतृत्व में जहाँ बहुत से ग्राम एकत्रित हों), लाकुटिक, गोकुलवासी, सेवक, जामाता और पथिकों से वस्त्र ग्रहण करने का विधान है। ये लोग नये वस्त्र लेकर पुराने वस्त्रों को श्रमणों को दे देते थे। वस्त्रों के विभाग करने को विधि बताई गई है। पासा डाल कर भी वस्त्रों का विभाजन किया जाता था। ___ वस्त्र के अभाव में मग्गपाली आदि साध्वियां चर्मखंड, शाक आदि के पत्र, और दर्भ द्वारा अथवा हाथ से अपने गुहय अङ्गों की रक्षा करती थीं। निर्ग्रन्थिनियों को अचेल रहने की अनुज्ञा नहीं थी, वे निम्नलिखित वस्त्र धारण करती थीं:-१ उग्गहणंतिग'-गुह्य अंगों को ढंकने के लिए इसका उपयोग होता था। आकार में यह वस्त्र नाव की भाँति होता था, बीच में चौड़ा और दोनों तरफ से पतला । यह वस्त्र कोमल होता था। २ पट्ट-यह छरे के समान चिपटा होता था । इसे धागों से कसकर बांध दिया जाता और कमर को ढंकने के लिए यह काफी था । यह चौड़ाई में चार अंगुल स्त्री के १. आचारांग ७.६.२२० । २. बृहत्कल्पभाष्य ३.३६०५ आदि । मूलसर्वास्तिवाद के विनयवस्तु में छन्नदश और दीर्घदश का उल्लेख है, पृ० ६५ । ३. बृहत्कल्पभाष्य ३.४२६८ आदि । ४. वही ३.४३२३-२६ । ५. निशीथभाष्य ५.१६८२ । ६. उग्गह अर्थात् योनिद्वार ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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