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तृ० खण्ड]
चौथा अध्याय : उपभोम , २११ इस पर बिछी थी, तथा लोम-चर्म, कपास, तन्तु और नवनीत के समान कोमल रक्तांशुक से यह ढंकी हुई थी।'
सुकुमार, कोमल, ग्रन्धप्रधान कषायरक्त शाटिकाओं ( अंगोछे) के द्वारा स्नान करने के पश्चात् शरीर पोंछा जाता था। यवनिका ( जवणिया) का वर्णन किया गया है। सुप्रसिद्ध नगरों में तैयार किये हुए रत्न तथा कीमती हीरे-जवाहरातों से यह सज्जित थी, इसके कोमल वस्त्र पर सैकड़ों डिजाइन बने हुए थे, तथा वृक, बृषभ घोड़े, नर, पक्षी, सर्प, किन्नर, शरभ, चमरी गाय, हस्ती, वृक्ष और लता से वे शोभित थे।
चेलचिलमिणि दूसरी प्रकार की यवनिका (कनात ) थी जो जैन साधुओं के उपयोग में आती थी।" यह पांच प्रकार की बतायो गयी है :-सूत की बनी हुई (सुत्तमई), रस्सी की बनी हुई ( रजुमई ), वृक्षों को छाल की बनी हुई (वागमई ), डण्डों की बनी हुई (दंडमई) और बांस की बनी हुई ( कडगमई )। यह कनात पाँच हाथ लम्बी और तीन हाथ चौड़ी होती थी।
जैसे लाट देश में कच्छ (कछोटा) पहनने का रिवाज था, वैसे ही महाराष्ट्र की कन्याएँ भोयड़ा पहनती थीं। इसे वे विवाह होने के पश्चात् गर्भवती होने तक धारण किये रहती थीं, तत्पश्चात् कोई उत्सव मनाया जाता जिसमें सगे-सम्बन्धियों को निमंत्रित किया जाता, और फिर भोयड़ा निकाल दिया जाता।
लोग नूतन ( अहय) और बहुमूल्य (सुमहग्गह =सुमहाघक) वस्त्र पहनते। भगवान् महावीर के वस्त्र ( पट्टयुगल) इतने बारीक और कोमल थे कि वे नाक के श्वास से उड़ जाते थे। किसी प्रसिद्ध
१. कल्पसूत्र ३. ३२; ज्ञातृधर्मकथा १, पृ. ४ । २. औपपातिकसूत्र ३१, पृ० १२२ । ३. कल्पसूत्र ४.६३ ।
४. बृहत्कल्पसूत्र १. १८; बौद्धों के चुल्लवग्ग ६. १. पृ० २४३ में इसे चिलिमिका कहा गया है।
५. देखिये निशीथभाष्य १.६५५-५६ ।
६. बृहत्कल्पभाष्य १.२३७४ श्रादि; ३.४८०४, ४८११, ४८१५, ४८१७ ।
७. निशीथचूर्णी पीठिका, पृ० ५२ । . ८. श्रीपपातिकसूत्र, ३१, पृ० १२२ ।