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तृ० खण्ड] चौथा अध्याय : उपभोग
२०५ वस्त्रों के प्रकार भोजन के पश्चात् जीवन का आवश्यक अंग है वस्त्र । सूती कपड़े पहनने का सर्वसाधारण में रिवाज था। लोग सुन्दर वस्त्र, गन्ध, माल्य और अलंकार धारण करते थे।' सभा में जय प्राप्त करने के लिये शुक्ल वस्त्रों का,धारण करना आवश्यक कहा है। चार प्रकार के वस्त्रों का यहाँ उल्लेख है :-वस्त्र जो प्रतिदिन पहनने के काम में आते हैं, जो स्नान के पश्चात् पहने जाते हैं, जो उत्सव, मेले आदि के समय पहने जाते हैं और जो राजा-महाराजा आदि से भेंट करने के समय धारण किये जाते हैं। टीका करते हुए लिखा है-'इत्यादेः श्रयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यते ( कुछ लोग श्रूयमाण अर्थ अर्थात् मांस-परक अर्थ को ही स्वीकार करते हैं )। अन्ये त्वाहु:-कापोतकः पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधम्योत्ते कपोते-कूष्मांडे ह्रस्वे कपोते कपोतके, ते च शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे, अथवा कपोतशरीरे इव धूसरवर्णसाधादेव कपोतशरारे कूष्मांडकफले एव ते उपसंस्कृते-संस्कृते ( कुछ का कथन है कि कपोत का अर्थ यहाँ कूष्मांड-कुम्हड़ा करना चाहिए)। 'तेहिं' नो अहो' त्ति बहु पापत्वात् । 'पारिआसिये' त्ति पारिवासितं ह्यस्तनमित्यर्थः । 'मज्जारकडए' इत्यादेरपि श्रूयमाणमेवार्थं मन्यन्ते (मारिकृत का भी कुछ लोग प्रचलित अर्थ हो स्वीकार करते हैं)। अन्ये त्वाहुः-मार्जारो वायुविशेषः तदुपशमनाय कृतं संस्कृतं माजोरकृतं ( कुछ का कथन है कि माजार कोई वायु विशेष है, उसके उपशमन के लिए जो तैयार किया गया हो वह 'मारिकृत' है)। अपरे त्याहुः-मार्जारो विरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं-भावितं यत्तत्तथा । किं तत् ? इत्याह कुकुटमांसं बोजपूरकं कटाहम् ( दूसरो के अनुसार मार्जार का अर्थ है विरालिका नाम की वनस्पति, उससे भावित बीजपूर यानो बिजौरा ) । 'बाहराहि' त्ति निरवद्यत्वात्, व्याख्याप्रज्ञक्ति १५, पृ० ६६२-श्र। तथा देखिए रतिलाल एम० शाह, भगवान् महावीर अने मांसाहार, पाटण, १६५६%; मुनि न्यायविजयजी, भगवान् महावीरनु औषधग्रहण, पाटण, १६५६ । बुद्ध भगवान् 'सूकरमद्दव' का भक्षण कर भयंकर रोग से पीड़ित हो कुशीनार के लिये विहार कर गये, देखिये दीघनिकाय २, ३, पृ० ६८-६।
१. कल्पसूत्र ४. ८२। २. बृहत्कल्पभाष्य ५. ६०३५।३. वही, पीठिका, ६४४ ।