________________
२०४ जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड कहा गया है। इसके अतिरिक्त , कतिपय देशों में मत्स्य और मांसभक्षण का रिवाज था । उदारण के लिए, सिंधु देश में लोग मांस से निर्वाह करते थे, तथा आमिष-भोजी वहाँ बुरे नहीं समझे जाते थे। ऐसी हालत में, देश-काल को अपेक्षा हो उक्त सूत्र का विधान समझा जाना चाहिए । वस्तुतः सामान्यतया जैन भिक्षुओं के लिए मद्य-मांस का निषेध ही बताया गया है।
बुद्ध भगवान ने त्रिकोटि-शुद्ध मांस-भक्षण का विधान किया है, अर्थात् जिस देखा न हो, ( अदृष्ट) जिसके सम्बन्ध में सुना न हो (अश्रत ) और जिसके बारे में शंका न हो ( अपरिशंकित )-ऐसे मांस का भक्षण किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि उन दिनों मांसभक्षण के सम्बन्ध में इतने कठोर विधान नहीं थे। रोग से पीड़ित होने पर या दुर्भिक्ष से आक्रान्त होने पर या कोई अनिवार्य उपसर्ग
आदि उपस्थित हो जाने पर, धर्मसंकट जान, श्रमण भिक्षु, शरीर त्याग करने की अपेक्षा, मांस भक्षण कर, संयम-निर्वाह करने को श्रेयस्कर समझते थे । अवश्य हो ऐसा करने के कारण वे प्रायश्चित के भागी होते थे।
भगवान् महावीर और मंखलिपुत्र गोशाल की कथा का उल्लेख किया जा चुका है । गोशाल ने जब महावीर के ऊपर तेजोलेश्या छोड़ी तो पित-ज्वर के कारण उन्हें खून के दस्त होने लगे । यह देखकर सिंह अनगार को बहुत दुख हुआ। महावीर ने उसे मेंढियग्रामवासी रेवती के घर भेजा और आदेश दिया-"रेवती ने जो दो कपोत तैयार कर रक्खे हैं, उन्हें मैं नहीं चाहता, वहाँ जो परसों के दिन तैयार किया हुआ अन्य मार्जारकृत कुक्कुटमांस रक्खा है, उसे ले आओ।" इसे भक्षण कर महावीर का रोग शान्त हुआ ।'
१. बृहत्कल्पभाष्य २९०६-११; निशीथचूर्णी, पीठिका पृ० १४९ । २. बृहत्कल्पभाष्य १. १२३९ ।
३. देखिये महावग्ग ६.१९,३५, पृ० २५३; सुत्तनिपात, आमगंधसुत्त, २.२; प्रोफेसर धर्मानन्द कोशांबी, पुरातत्त्व ३.४, पृ० ३२३ आदि ।
४. दुवे कावोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए तमाहराहिं । अभयदेवसूरि ने इसकी