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________________ २०३ तृ० खण्ड] चौथा अध्याय : उपभोग तीसरा कहने लगा कि यह तो अकृत्य है लेकिन क्या किया जाये, चौथे ने केवल कुत्ते के मांस का ही भक्षण नहीं किया, बल्कि वह गाय और गधे आदि के मांस का भी भक्षण करने लगा। अटवी पार करने के पश्चात् सब को प्रायश्चित्त दिया गया। पहले ब्राह्मण को थोड़ा सा प्रायश्चित देकर शुद्ध कर लिया । दूसरा भूख से मर गया । तीसरे के सिर पर कुत्ते का चर्म रखकर उसे चतुर्वेदी ब्राह्मणों के पादवंदन के लिए आदेश दिया गया । चौथा मातग चांडालों में मिल गया।' जैन साधु और मांसभक्षण जैन साधुओं के सम्बन्ध में भो लगभग यही बात हुई । साधुओं को दिये जाने वाले भिक्षापिंड में दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, तिल और मधु आदि के साथ मद्य और मांस का भी उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के संबंध में टीकाकार ने लिखा है कि मद्यमांस को व्याख्या छेदसूत्र के अभिप्राय से करनी चाहिए, अथवा हो सकता है कि कोई अत्यन्त लोलुपी साधु प्रमाद के कारण मद्य-मांस का भक्षण करना चाहे, अतएव भिक्षापिंड में इन्हें भी सम्मिलित किया गया है। मांस या मत्स्य को पकता हुआ देखकर साधु के लिए उसकी याचना न करने का विधान है लेकिन यदि वह किसी रोग आदि से आक्रान्त हो तो यह नियम लागू नहीं होता। ऐसी हालत में यदि कोई उसके भिक्षापात्र में बहुत हड्डी वाला मांस ( बहु अट्ठिय पुग्गल) डाल दे तो उससे कहना चाहिए कि यदि यही देना तुम्हें इष्ट है तो पुद्गल (मांस) ही दो, अस्थि नहीं । यह कहने पर भी यदि वह भिक्षान्न जबदस्ती पात्र में डाल हो दे तो भिक्षा को एकान्त में ले जाकर, मांस और मत्स्य का भक्षण कर अस्थि और कंटक को अलग कर दे। इस सम्बन्ध में पुनः टीकाकार का कथन है कि यह विधान किसी अच्छे वैद्य के उपदेश से लूता आदि रोग के शान्त करने के लिए किया हुआ ही समझना चाहिए। चोरपल्लि अथवा शून्य ग्राम में से होकर जाते हुए साधुओं के लिए भी मत्स्य-मांस का विधान संभव १. १.१०१३-१६; निशीथभाष्य १५.४८७४ आदि । २. आचारांगसूत्र २, ११.४.२४७ टीका । . ३. आचारांगटीका, वही; तथा २, १.९.२७४ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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