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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
[ तृ० खण्ड
काल दो बछड़े मारकर लाने का अपने नौकर को आदेश देतो ।' इससे प्रतीत होता है कि साधारण लोगों में मांस भक्षण का रिवाज था ।
साधारणतया जैन श्रावक या जैनसाधु के लिए मांस भक्षण का सर्वथा निषेध है । आवश्यकचूर्णी में द्वारका के अरहमित्त श्रावक के पुत्र जिनदत्त की कथा आती है। एक बार, वह किसी भयंकर रोग से पीड़ित हुआ । वैद्यों ने मांस भक्षण बताया, लेकिन वह अपने व्रत पर दृढ़ रहा । उसने कहा, जलती हुई आग में मर जाना अच्छा है, लेकिन चिरसंचित व्रत का भंग करना ठीक नहीं । मृत्यु श्रेष्ठ है, लेकिन जीवन में शील का स्खलन करना अच्छा नहीं । बौद्धां और हस्तितापसों के साथ शास्त्रार्थ होते समय भी आर्द्रककुमार साधु मांस भक्षण की निन्दा ही की है। इससे सिद्ध होता है कि जैनधर्म में मांस भक्षण निषिद्ध था ।
लेकिन कभी कुछ संकटकालीन परिस्थितियाँ ऐसी भी आ जातीं जब कि विवश होकर मांस भक्षण के लिए बाध्य होना पड़ता । राजगृह के धन्य सार्थवाह का उल्लेख किया जा चुका है। अपने पाँचों पुत्रों को साथ लेकर उसने जंगल में भागते हुए चिलात चोर का पीछा किया । सब लोग भागते-भागते थक गये, और क्षुधा तृषा से पोड़ित हो उठे । उस समय लाचार होकर मृत सुंसुमा के मांस का भक्षण कर और उसके रक्त का पान कर उन्होंने अपनी क्षुधा और तृषा शान्त की । इसी तरह की कथा बृहत्कल्पभाष्य में आती है । चार ब्राह्मण किसी वेदाध्ययन पारगामी ब्राह्मण के साथ परदेश की यात्रा कर रहे थे । मार्ग में इन्हें बहुत भूख-प्यास लगी । इनके साथ एक कुत्ता भी था । वेदपारगामो ब्राह्मण ने कहा कि हमें इस कुत्ते को मारकर खा लेना चाहिए, आपत्तिकाल में यह वेदों का रहस्य है । पहले ब्राह्मण ने यह बात स्वीकार कर लो, दूसरे ने सुनकर अपने कानों पर हाथ रक्खे,
१. उपासकदशा ८, पृ० ६३ ।
२. वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतं । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणो न चापि शीलस्खलितस्य जीवितं । — आवश्यकचूण २, पृ० २०२ ।
३. सूत्रकृतांग २, ६.३७–४२ ।
४. ज्ञातृधर्मकथा १८, पृ० २१३ ।