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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ तृ० खण्ड
कुमार मद्यपान में अत्यन्त आसक्त रहते थे, और कादम्बरी' नामक मद्य द्वारका के सर्वनाश में कारण हुआ । स्त्रियों द्वारा मद्यपान किये जाने के उल्लेख मिलते हैं ।
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बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार, जैन भिक्षु और भिक्षुणियों को उस स्थान में ठहरने का निषेध है जहाँ मद्य के कुम्भ रक्खे रहते हों । ध्यान रखने की बात है कि जैन साधुओं को मद्यपान का सर्वथा निषेध था, ' लेकिन उपसर्ग, दुर्भिक्ष, आतंक, बुढ़ापा, रोग आदि उपस्थित होने पर, अपवाद मार्ग का अनुसरण कर वे मद्यपान कर सकते थे" । ज्ञातृधर्मकथा में शैलक ऋषि की कथा आती है। रूक्ष और तुच्छ भोजन करने के कारण उनके शरीर में तीव्र वेदना होने लगी। एक बार, विहार करते हुए वे सुभूमिभाग में आये । वहाँ मंडुक राजा ने उन्हें अपनी यानशाला में ठहरने का निमंत्रण दिया जिससे कि वहाँ रहकर उनकी चिकित्सा हो सके । वैद्यों ने शैलक ऋषि की चिकित्सा करना आरम्भ किया । उन्होंने मद्यपान का विधान किया । इससे रोग तो शान्त हो गया, लेकिन शैलक ऋषि को मद्यपान का चसका लग गया
बृहत्कल्पभाष्य में मद्य को स्वाथ्य और दीप्ति का कारण बताया है" । चावल अथवा गन्ने के रस से शराब (वियड = विकट ) बनायी जाती थी । यह दो प्रकार की होती थी, सुराविकट और सौवीरविकट | आटे ( पिट्ठ; मराठी पीठ ) से बनी हुई शराब को सुराविकट, तथा आटे
१. हरिवंशपुराण, २.४१.१३ में इसका उल्लेख है । कदंब के पके फल से इसे तैयार किया जाता था । तथा देखिये उत्तराध्ययनटीका २, * पृ० ३७ | यहां कर्केतन रत्न के समान इसकी कांति बताई गई है ।
२. उत्तराध्ययनटीका २, पृ० ३६ - अ आदि । तथा देखिये घटजातक ( ४५४ ), ४, पृ० २८८ ।
३. उपासकदशा ८, पृ० ६३ ।
४. कल्पसूत्र ९.१७ में विधान है कि पर्युषण पर्व में स्वस्थ जैन भिक्षु और भिक्षुणियाँ दूध, दही, नवनीत, घी, तेल, गुड़, मधु, मद्य और मांस का सेवन न करें । मद्यजन्य दोषों के लिये देखिये निशीथचूर्णी पीठिका १३१; कुंभजातक ( ५१२ ), ५, पृ० १०२-१०९ ।
५. बृहत्कल्पभाष्य २.३४१३ ।
६. ५, पृ० ८० आदि । ७. बृहत्कल्पभाष्य ५.६०३५ ।