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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[तृ० खण्ड
के घर भेजा जाता था । विवाह के पश्चात् वर के घर में वधू के प्रवेश करने पर, किये जाने वाले भोजन को आहेणग, तथा अपने पीहर
-वधू द्वारा लाये जाने वाले भोजन को पहेणग कहा जाता है । श्राद्ध आदि के समय मृतक भोजन को, अथवा यज्ञ आदि की यात्रा के समय किये जाते हुए भोजन को हिंगोल कहते हैं। अपने सगे-संबंधियों और इष्ट मित्रों को एकत्रित कर, खिलाये जाते हुए भोजन को संमेल कहते हैं । पुलाक एक विशिष्ट प्रकार का भोजन होता था । गुटिका ( गुलिया ) कसैले झाड़ के चूर्ण से साधुओं के लिए तैयार की जाती थी । गोरस में भिगोकर सुखाये हुए वस्त्रों को खोल कहते हैं । यदि साधु कहीं दूर स्थान की यात्रा कर रहे हों और उन्हें प्रासुक (निर्दोष ) जल न मिल सके तो इन वस्त्रों को धोकर इनके जल का पान कर सकते थे । यदि खोल न हों तो उपर्युक्त गुटिका के सेवन करने का विधान है । '
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भोजन बनाने का उल्लेख है" । राजाओं और धनिकों के घर में रसोइये ( महाणसिय) विविध प्रकार का भोजन - व्यंजन बनाते थे । रसोइयों की गणना नौ नारुओं में की गयी है । साग-भाजी तेल (नेह) में पकाई जाती थी' । रसोईघर में सागभाजी और घी के प्रबन्ध करने को आवाप, तथा भोजन पककर तैयार हो गया है या नहीं, इस बात की चर्चा को निर्वाण कहते हैं । भोजन करने की भूमि को हरियाली
१. बृहत्कल्पसूत्र २. १७, भाष्य २. ३६१७ ।
२. आचारांग २, १.३.२४५, पृ० ३०४; निशीथसूत्र ११.८०, तथा चूणीं । ३. बृहत्कल्पभाष्य ५.६०४८ आदि ।
४. वही १.२८८२, २८९२ । विशेषचूर्णी में गुलिय का अर्थ वल्कल, खोल का अर्थ सीसखोल किया है जिसके द्वारा साधु लोच किये हुए अपने सिर को ढंक लेते थे ।
५. ज्ञातृधर्मकथा ७, पृ० ८८ ।
६. विपाकसूत्र ८, पृ० ४६ ।
७. जम्बूद्वीपटीका ३, पृ० १९३ ।
८. ज्ञातृधर्मकथा १६, पृ० १६२ ।
९. स्थानांग ४.२८२ । आवश्यकचूर्णी २. पृ० ८१ में अतिवाव, णिव्वाव, आरम्भ और मिट्ठाण – ये चार भक्तकथा के प्रकार बताये गये हैं । तथ देखिये निशीथभाष्य पीठिका १२२-१२३ ।