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तृ० खण्ड] चौथा अध्याय : उपभोग (थालीपागसुद्ध) अपने माता-पिता, स्वामी और धर्माचार्य को सन्मान के साथ प्रदान किये जाते थे।'
अन्य खाद्य पदार्थों में गुड़ और घो से पूर्ण रोग (बड़ी रोटी) पेय (पीने योग्य; मांड, रसा आदि), हविपूत अथवा घृतपूर्ण (घयपुण्ण; हिन्दी में घेवर), पालंगमाहुरय (आम या नींबू के रस से बनाया हुआ मीठा शर्बत), सोहकेसर, मोरण्डक,६ गुलपाणिय, (तिल की बनी मिठाई ), मंडक (गुड़ भरकर बनायी हुई रोटी, जो सूर्योदय के अवसर पर अग्रस्थित ब्राह्मण मानकर धूलिजंघ (जिसके पैरों में घूलि लगो हो) को दी जाती है; (पूरंपूरी), घो, इट्टगा (सेवई), और पापड़ (पप्पडिय), बड़ा, पूआ आदि का उल्लेख मिलता है। कल्याण (कल्लणग) चक्रवर्तियों का भोजन होता था जिसे केवल चक्रवर्ती ही भक्षण कर सकते थे । कांपिल्यपुर के ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पुरोहित ने एक बार यह भोजन करने की इच्छा व्यक्त की। ब्रह्मदत्त ने गुस्से में आकर उसे अगले दिन अपने मित्रों के साथ आने के लिए निमंत्रित किया। लेकिन भोजन खाकर पुरोहित उन्मत्त हो गया और मोह की तीव्रता से पशुधर्म का आचरण करने लगा।
आहडिया एक खास मिष्टान्न होता था जो उपहार के रूप में किसी
१. स्थानांग ३, १३५; तथा चरकसंहिता, कृतान्नवर्ग, १, २७, पृ० ३५३ आदि ।
२. उत्तराध्ययनटीका ३, पृ० ६३ । ३. निशीथभाष्य ४.१८०३ । ४. उपासक १, पृ० ९। ५. अन्तःकृद्दशा, पृ० १०। ६. बृहत्कल्पभाष्य १.३२८१ ।।
७. निशीथभाष्य ४.१६६३, गुलो जीए कवल्लीए कढिति तत्थ जं पाणियं कयं तत्तमतत्तं वा तं गुलपाणियं ।
८. निशीथचूर्णी ११.३४०३ की चूर्णी । ९. पिंडनियुक्ति ५५६, ६३७ । १०. बृहत्कल्पभाष्य २.३४७६ । - ११. निशीथचूर्णी १.५७२ तथा चूर्णी, पृ० २१ ।