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चौथा अध्याय
. उपभोग धन के उपभोग का अर्थ है, अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूर्ति के लिए धन का उपयोग । उत्पादन आर्थिक क्रियाओं का साधन है जब कि उपभोग उन सबका अन्त है। उदाहरण के लिए, कपड़ों का उत्पादन किया जाता है, फिर पहनने के बाद जब वे फट जाते हैं तो यह उनका उपभोग कहलाता है। उपभोग का निश्चय होता है जीवन के स्तर द्वारा, जो किसी व्यक्ति या समाज द्वारा अपने लिए स्थिर किया जाता है। उपभोग की वस्तुएँ तीन भागों में विभक्त की जा सकती हैं-जीवन की आवश्यकताएँ,' आराम और भोगविलास।
खाद्य पदार्थ ____ जीवन को मुख्य आवश्यकताएँ हैं भोजन, वस्त्र और रहने के लिए घर । हमारे देश में खेती-बारी को बहुतायत थी, इसलिए भोजन की कमी यहाँ नहीं थो। यह बात अवश्य है कि सामान्य मनुष्य को उत्तम भोजन नहीं मिलता था। चार प्रकार के भोजन का उल्लेख जैनसूत्रों में उपलब्ध होता है-अशन, पान, खाद्य (खाइम) और स्वाद्य ( साइम)। भोज्य पदार्थों में दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, मधु, मदिरा, गुड़, मांस, पक्कान्न (ओगाहिमग), शष्कुली (हिन्दी में लूची), राब (फाणिय), भुने हुए गेहूँओं से बना खाद्य पदार्थ
१. ज्ञातृधर्मकथा ७, पृ० ८४ । अन्य प्रकारों में पशुभक्त, मृतकभक्त, कांतारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, दमगभक्त, ग्लानभक्त आदि का उल्लेख है, निशीथसूत्र ६.६ ।
२. आवश्यकचूणी २, पृ० ३१६ । ---
३. इसे छुट्टगुल्ल (आर्द्रगुड ) अथवा खुडगल्ल भी कहा गया है। पिंड गुड को पानी से गीला कर देने पर उसे दविय ( द्रवित ) कहा जाता है। ये दोनों ही फाणित कहे जाते हैं, बृहत्कल्पभाष्य २.३४७६ की चूर्णी तथा टीका ।
१३ जै० भा०