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तृ० खण्ड ]
तीसरा अध्याय : विनिमय
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जहाज के लिए पोत, पोतवहन, बहन और प्रवहण आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है । पाण्डुमथुरा के राजा पाण्डुसेन की दो कन्याओं का वारिवृषभ नाम के जहाज से सौराष्ट्र पहुँचने का उल्लेख किया जा चुका है ।" जहाज पवन के जोर (पवणबलसमाहय ) से चलते थे; उनमें डांडे और पतवार लगे रहते थे । पाल के सहारे वे आगे बढ़ते, और लंगर डालकर उन्हें ठहराया जाता | नाव के डंडे को अलित्त, छोटो नाव को द्रोणी और नाव के छिद्र को उत्तिंग कहा गया है । निर्यामक ( निज्जामय ) लोग जहाज को खेते थे । जहाज के अन्य कर्मचारियों में कुक्षिवारक, कर्णधार और गर्भज ( जहाज पर छोटा-मोटा काम करने वाले ) के नाम गिनाये गये हैं । परदेश यात्रा के लिए राजा की आज्ञा ( रायवरसासण = पासपोर्ट ) का प्राप्त करना आवश्यक था।` व्यापारी लोग सुबह का नाश्ता ( पायरासेहिं ) करके मार्ग में ठहरते हुए यात्रा करते थे । इष्ट स्थान पर पहुँच जाने पर वे उपहार आदि लेकर राजा की सेवा में उपस्थित होते । राजा उनका कर माफ कर देता और उनके ठहरने की उचित व्यवस्था करता । कारोबार की व्यवस्था
प्रत्येक गांव में व्यापारी होते थे, तथा माल का बेचना और खरोदना सीधे उत्पादनकर्त्ता और उपभोक्ता के बीच हुआ करता था। यह व्यापार अलग-अलग दुकानों पर या बाजार की मंडी में होता था, और यदि बिक्री के बाद माल बच जाता तो वह देश के अन्य व्यापारिक केन्द्रों में भेज दिया जाता ।
१. श्रावश्यकचूर्णी २, पृ० १६७ ।
२. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ० ६८ । श्राचारांग २.३.१.३४२ में लित्त (डाँड), प्रीय (पतवार ), बंस ( बाँस ), वलय, अवलुय और रज्जु का उल्लेख है । निशीथभाष्य १८.६०१५ में लित्त, श्रासत्य, थाह लेने का बांस और चलग (रण ) का उल्लेख मिलता है । लंगर ( नावालकनक ), मस्तूल ( कूप ), नियामक और नाविक ( कम्मकर ) के लिए देखिए मिलिन्दप्रश्न, पृ० ३७७ आदि ।
३. निशीथभाष्य १८.६०१५–६०१६ |
४. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ० ६८ ।
५. वही, १५, पृ० १६० ।
६. वही ८, पृ० १०२ ।