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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ तृ० खण्ड
द्वारा वीतभय (भेरा, जिला शाहपुर, पाकिस्तान ) की यात्रा कर रहे थे । मार्ग में इतने उपद्रव हुए कि जहाज छह महीने तक चक्कर काटता रहा ।' देवी-देवताओं और भयंकर आँधी-तूफान ( कालियवाय ) आदि के कारण इतने उपद्रव होते जिससे व्यापारियों का जीवन खतरे में पड़ जाता । ज्ञातृधर्मकथा से पता चलता है कि जहाज फट जाने के कारण, बड़ी कठिनाई से दो व्यापारी एक पट्ट ( फलगखंड ) के सहारे रत्नद्वीप में उतरे । कालियावात से रहित पश्चिमोत्तर वायु (गज्जभ ) के चलने पर कुशल निर्यामकों की सहायता से निरिच्छद्र पोत का इष्ट स्थान पर पहुँचने का उल्लेख मिलता है । 3
चंपा के अर्हन्नग आदि देशान्तर जाने वाले व्यापारियों का उल्लेख किया जा चुका है । इन लोगों ने जहाज को विविध प्रकार के मालअसबाब से भरा और शुभ मुहूर्त देखकर बाजे-गाजे के साथ, मिथिला के लिए प्रस्थान किया । बिदाई के अवसर पर उनके मित्र और सम्बन्धी भी उन्हें पहुँचाने आये थे । वे सब उनकी रक्षा के लिए और उन्हें कुशलपूर्वक शीघ्र हो वापिस लौट आने के लिए भगवान् समुद्र की मनौती कर रहे थे । उनका दिल भर-भरकर आ रहा था, और उनके नेत्र आंसुओं से आर्द्र हो गये थे ।
जहाज डूबने के वर्णन जैनसूत्रों में मिलते हैं। एक बार की बात है, प्रतिकूल वायु चलने पर आकाश में बादलों का गम्भीर गर्जन सुनाई देने लगा । यात्री भय के मारे एक दूसरे से सटकर बैठ गये, तथा इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, नाग, भूत, यक्ष आदि की उपासना में लीन हो गये । जहाज के संचालक और कर्णधार घबड़ा उठे, ठीक दिशा का ज्ञान उन्हें नहीं रहा और उनकी समझ में नहीं आया कि ऐसे संकट के समय क्या किया जाये । जोने की आशा छोड़ अत्यन्त दीनभाव से वे निराश होकर बैठे रहे ।
१. उत्तराध्ययनटीका १८, पृ० २५२-अ ।
२. ६, पृ० १२३ ।
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३. श्रावश्यकचूर्णी पृ० ५१२ । यहाँ १६ प्रकार की वायुओं का उल्लेख है । ४. ज्ञातृधर्मकथा १७, पृ० २०१ । ऐसे संकट के समय समुद्र को रत्न चढ़ाये जाते थे । काठियावाड़ में समुद्र तट पर अग्नि जलाने तथा समुद्र को दूध, मक्खन और शक्कर चढ़ाने की प्रथा थी, कथासरित्सागर पेन्जर, जिल्द ७, अध्याय १०१, पृ० १४६ |