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तृ० खण्ड ]
तीसरा अध्याय : विनिमय
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से नदी पारकर सकते थे ।' कुछ नाव हाथी की सूंड के आकार की होती थीं । निशोथभाष्य में चार प्रकार की नावों का उल्लेख है :अनुलोमगामिनी, प्रतिलोमगामिनी, तिरिच्छसंतारणी ( एक किनारे से दूसरे किनारे पर सरल रूप में जाने वाली ) और समुद्रगामिनी । समुद्रगामिनी नाव से लोग तेयालगपट्टण ( आधुनिक वेरावल ) से द्वारका की यात्रा किया करते थे । समाजविकास की आदिम _ अवस्था में ( दृति = दइय = मशक ), और बकरे की खाल पर बैठकर भी लोग नदी पार करते थे । इसके अतिरिक्त, चार काष्ठों के कोनों पर चार घड़े बाँधकर, मशक में हवा भरकर, तुम्बी के सहारे, घिरनई ( उडुप ) पर बैठकर, तथा पण्णि नामकी लताओं से बने दो बड़े टोकरों को बाँधकर उनसे नदी पार की जाती थी ।" नाव में लम्बा रस्सा बाँधकर उसे किनारे पर खड़े हुए वृक्ष अथवा लोहे के खूँटे में बाँध दिया जाता । मुंज या दर्भ को अथवा पीपल आदि की छाल को कूट कर बनाये हुए पिंड ( कुट्टविंद ) से अथवा वस्त्र के चीथड़ों के साथ कूटे हुए पिंड ( चेलमट्टिया ) से नाव को छिद्र बंद किया जाता । भरत चक्रवर्ती की दिग्वजय के अवसर पर उनका चर्मरत्न नाव के रूप में परिणत हो गया और उस पर सवार होकर उन्होंने सिंधुनदी को पार करते हुए सिंहल, बर्बर, यवन द्वीप, अरब, एलैक्ज़ैण्ड्रा आदि देशों को यात्रा की । "
व्यापारी जहाजों से समुद्र की यात्रा किया करते थे; और समुद्रयात्रा खतरों से खाली नहीं थी । कुछ व्यापारी जहाज ( प्रवहण ) के
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१. उत्तराध्ययनसूत्र २३.७१ ।
२. महानिशीथ ४१, ३५; गच्छाचारवृत्ति, पृ० ५०- आदि ।
३. निशीथभाष्य पीठिका १८३ । निशीथसूत्र १८.१२-१३ में चार नावों का उल्लेख है :- ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी, योजनवेलागामिनी और अर्धयोजन वेलागामिनी ।
४. पिंडनिर्युक्ति ४२; सूत्रकृतांग १.११, पृ० १६६ ।
५. निशीथभाष्य पीटिका १८५, १६१,२३७ १२.४२०६ | निशीथभाष्य पीठिका १६१ में थाहवाले जल को संघ ( घुटनों तक का जल ), लेप ( नाभिप्रमाण जल ) और लेपोपरि ( नाभि से ऊपर जल ) के भेद से तीन प्रकार का बताया गया है ।
६. निशोथसूत्र १८.१० - १३ की तथा १८.६०१७ की चूर्णां । ७. श्रावश्यकचूर्णी पृ० १६१ ।