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तृ० खण्ड ]
तीसरा अध्याय : विनिमय
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वकील और लोहपट्ट से युक्त गाड़ी भारवहन करने में समर्थ समझी जाती थी ।' निशीथभाष्य में भंडी ( गाड़ी ), बहिलग, काय ( बंहगी ) और शीर्ष का उल्लेख है - इन से माल ढोया जाता था । गाड़ी के पहियों के धुरे में तेल देकर पहियों को औंगा जाता था । वाणियगाम के गृहपति आनन्द के पास दूरगमन ( दिसायत्त ) के लिए ५००, और स्थानीय कार्यों ( संवहणीय ) के लिए ५०० गाड़ियाँ थीं ।" यानशालाओं का उल्लेख मिलता है । यान वाहक यान और वाहनों का ध्यान रखते थे । उपयोग में लाने से पहले वे वस्त्र हटाकर उन्हें झाड़ू-पोंछकर साफ करते और आभूषणों से सजाते । यानों में बैल जोते जाते, और बहलवान ( पओअधर = प्रतोत्रधर ) उन्हें हांकते समय नोकदार छड़ी ( पओदलट्ठि = प्रतोत्रयष्टि ) का उपयोग करते ।" बैलों के सींग तोदग होते, और उनमें घंटियाँ और सुवर्णखचित सूत्र की रस्सियाँ बँधी रहतीं । उनके मुँह में लगाम ( पग्गह = पगहा ) पड़ी रहती, और नील कमल उनके मस्तक पर शोभायमान रहता ।' बैलों को बधिया करने ( निल्लं छणकम्म) का रिवाज था । गाड़ियों, घोड़ों, नावों और जहाजों द्वारा माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाया जाता । "
बढ़िया किस्म के यानों में में रथ का उल्लेख मिलता है; रथों में घोड़े जोते जाते थे । चार घोड़ों वाले रथों का उल्लेख मिलता है । " शिविका ( शिखर के आकार की ढकी हुई पालकी ) " और स्यन्दमानी
१. निशीथभाष्य २०.६५३३ की चूर्णी ।
२. ३.१४८६ ।
३. उत्तराध्ययनटीका ८, पृ० १२८; बृहत्कल्पभाष्य ४. ५२०४ ।
४. उपासकदशा १, पृ० ७ ।
पपातिक ३०, पृ० १२० । रामायण ३.३५.४ में भी यानशाला का
५. उल्लेख है ।
६. ज्ञातृधर्मकथा ३, पृ० ६० ।
७. उपासकदशा १, पृ० ११ ।
८. बृइत्कल्पभाष्य १.१०६० ।
६. श्रावश्यकचूर्णी पृ० १८ ।
१०. कूटाकाराच्छादितः जंपानविशेषः, राजप्रश्नीयटीका पृ० ६ ।