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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड रास्ते में वेगवती नदी पार करते समय उसका एक बैल मर गया।' तोसलि भैंसों के लिए, और कोंकण अपने जंगली जानवरों, विशेषकर जंगली शेरों के लिए, प्रसिद्ध था ।
इन सब कठिनाइयों के कारण उन दिनों व्यापारी लोग सार्थ बनाकर यात्रा किया करते थे। जैनसूत्रों में पाँच प्रकार के सार्थों का उल्लेख मिलता है:-(१) गाड़ियों और छकड़ों द्वारा माल ढोने वाले (भंडी), (२) ऊँट, खच्चर और बैलों द्वारा माल ढोने वाले (वहिलग), (३) अपना माल स्वयं ढोने वाले (भारवह), (४) अपनी आजीविका के योग्य द्रव्य लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने वाले (ओदरिया ), तथा (५) कापार्टिक साधुओं (कापडिय) का सार्थ ।' अन्यत्र कालोत्थायी, कालनिवेशो, स्थानस्थायी और कालभोजी नाम के साथ गिनाये गये हैं। कालोत्थायी सूर्योदय होने पर गमन करते थे, कालनिवेशी सूर्य के उदय होने पर या प्रथम पौरुषो (जिस काल में पुरुष-प्रमाण छाया हो ) में कहीं ठहरते थे, स्थान स्थायी गोकुल आदि में ठहर जाते थे, तथा कालभोजी मध्याह्न सूर्य के समय भोजन करते थे।" सार्थ के लोग अनुरंगा ( घंसिका=गाड़ी), पालको, घोड़े, भैंसे, हाथी और बैल लेकर चलते थे जिससे कि चलने में असमर्थ रोगियों, घायलों, बालकों और वृद्धों को इन वाहनों पर चढ़कर ले जा सके। उस सार्थ को प्रशंसनीय कहा गया है कि जो वर्षा, बाढ़ आदि आकस्मिक संकट के समय, उपयोग में आनेवाली दन्तिक्क । मोदक, मंडक, अशोकवर्ती आदि-टोका ), गेहूँ ( गोर), तिल, बीज, गुड़, घी आदि वस्तुओं को अपने साथ भरकर चलते हों।
गाड़ी या छकड़ों ( सगडीसागड ) को यातायात के उपयोग में लिया जाता था । दो पहिए, दो उद्धि (गुजराती में उध) और धुराये गाड़ी के पाँच मुख्य अंग माने गये हैं। मजबूत काष्ठवाली तथा
१. प० २७२। २. आचारांगचूर्णी प० २४७ । ३. निशीथचूर्णी पीठिका २८६ की चूर्णी । ४. बृहत्कल्पभाष्य १.३०६६ आदि । ५. वही १.३०८३ आदि। ६. वही १.३०७१ । ७. वही ३०७३ तथा ३०७५ श्रादि ।