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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
[ तृ० खण्ड
हुए सोने, चाँदी, मणि, मुक्ता आदि दिखाई दिये । यह देखकर राजा को बहुत क्रोध आया । उसने फौरन ही अचल को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया।
बिक्री की अन्य वस्तुओं में वीणा, वल्लकी, भ्रामरी, कच्छभी, भंमा, षड्भ्रामरी आदि वाद्यों, तथा लकड़ी के खिलौने ( कटुकम्म ), मसाले के बने खेल खिलौने, ( पोत्थकम्म ), चित्रकर्म ( चित्तकम्म ), लेप्य कर्म, गूंथकर बनायी हुई मालायें ( गन्थिम ), पुष्प के मुकुट जैसे आनन्दपुर में बनाते हैं (वेढिम ), छेदवाली गोल कुंडो को पुष्पों से भरना (पूरिम), सांध कर तैयार की हुई वस्तुयें - जैसे स्त्रियों के कंचुक ( संघाइम )' आदि का नाम आता है। इसके अलावा, कोष्ठ ( कूट), तमालपत्र, चोय ( चुवा ), तगर, इलायची, हिरिवेर ( खसखस ) आदि, तथा खांड, गुड़, शर्करा, मत्स्यंडिका ( बूरा ), पुष्पोत्तर, पद्मोत्तर आदि का उल्लेख किया गया है । कस्तूरी, हिंगू, शंख और नमक की बिक्री की जाती थी । पनवाड़ी लोग पान बेचते थे ।
यान - वाहन
व्यापार और उद्योग-धन्धों के विकास के लिए शीघ्रगामी और सस्ते आवागमन के साधनों का होना परम आवश्यक है । कौटिल्य ने यातायात के लिए जलमार्ग और स्थलमार्ग के निर्माण की आवश्यकता बतायी है ।" जैनसूत्रों में शृंगाटक ( सिंघाडक), त्रिक ( तिग ), चतुष्क ( चक्क; चौक ), चत्वर ( चञ्चर ), महापथ और राजमार्ग का उल्लेख है जिससे पता लगता है कि उन दिनों भी मार्ग की व्यवस्था थी। उत्तराध्ययनटीका में हुतवह नाम की रथ्या का उल्लेख है । यह रथ्या गर्मी के दिनों में इतनी अधिक तपती थी कि कोई वहाँ से जाने का साहस नहीं करता था । फिर भी, मार्गों की दशा सन्तोष
१. दशवेकालिकचूर्णी २, पृ० ७६ ।
२. ज्ञातृधर्मकथा १७, पृ० २०३ ।
३. बृहत्कल्पभाष्य १.३०७४ ।
४. निशीथभाष्य २०.६४१३ ।
५. अर्थशास्त्र २.१.२१, पृ० ६२ ।
६. राजप्रश्नीयसूत्र १०; बृहत्कल्पभाष्य १.२३०० |
७. १२, पृ० १७२ - श्र ।