SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड शक्कर, घी, चावल तथा कपड़ा और रत्न आदि आवश्यक सामान भरा तथा अपने लिए चावल, आटे, तेल, घी, गुड़, गोरस, पानी, पानी के बर्तन, दवा-दारू, तृण, लकड़ी, वस्त्र और अस्त्र-शस्त्र आदि को व्यवस्था कर, वे मिथिला के लिए प्रस्थान कर गये। पहले कहा गया है कि सोना और हाथीदाँत उत्तरापथ से दक्षिणापथ में बिकने के लिये आते थे । वस्त्र का बड़े परिमाण में विनिमय होता था। मथुरा और विदिशा (भेलसा) वस्त्र-उत्पादन के बड़े केन्द्र थे।' गौड़ देश रेशमी वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था। पूर्व से आने वाला वस्त्र लाट देश में आकर ऊँची कीमत पर बिकता था। ताम्रलिप्ति, मलय, काक, तोसलि, सिन्धु', दक्षिणापथ और चीन से विविध प्रकार के वस्त्र आते थे। नैपाल रुएंदार बहूमूल्य कम्बल के लिए प्रसिद्ध था । जैन साधु इसे अपने वंशदण्ड के भीतर रखकर लाते थे।" महाराष्ट्र में ऊनी कम्बल अधिक कीमत पर बिकते थे ।२ ज्ञातृधर्मकथा में अनेक प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख है जिन्हें व्यापारी लोग अपनी गाड़ियों में भरकर बिक्री के लिए ले जाया करते थे। घोड़ों का व्यापार चलता था। कालियद्वीप अपने सुन्दर घोड़ों के लिए प्रसिद्ध था, और यहाँ सोने, चाँदी, रत्न और हीरे की खानें थीं, १. श्रावश्यकटीका, ( हरिभद्र ) पृ० ३०७ । २. श्राचारांगटीका २, ५, पृ० ३६१ श्र। जातकों में काशी से आनेवाले वस्त्र ( कासिवत्थ ) का उल्लेख मिलता है । ३. बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति ३.३८८४ । ४. व्यवहारभाष्य ७.३२ ।। ५ अनुयोगद्वारसूत्र ३७, पृ० ३० । ६. निशीथसूत्र ७.१२ की चूणीं । ७. वही। ८. श्राचारांगचूर्णी, पृ० ३६४; श्राचारांगटीका २, १, पृ० ३६१-अ । ६. अाचारांगचूर्णी, पृ० ३६३ । १०. बृहत्कल्पभाष्य २.३६६२ । ११. वही, वृत्ति ३.३८२४; उत्तराध्ययनटीका २, पृ० ३० अ । १२. बृहत्कल्पभाष्य ३.३६१४ १३. ज्ञातृधर्मकथा १७, पृ० २०३ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy