________________
१७४
__ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड बहुमूल्य वस्तुएँ लेकर व्यापार के लिए दक्षिणापथ को यात्रा किया करते थे। ये लोग दक्षिणवासियों की भाषा नहीं समझते थे, इसलिए हाथ के इशारों से मोल-तोल होता था। जब तक अपने माल की उचित कोमत न मिल जाय तब तक टंकण अपने माल पर से हाथ नहीं उठाते थे।' दंतपुर नगर में धनमित्र नामक वणिक् अपनी पत्नी के लिये हाथीदाँत का प्रासाद बनवाना चाहता था। उसका कोई मित्र पुलिंदों के योग्य वस्त्र, मणि, आलता और कंकण लेकर अटवी में गया। इन चीजों के बदले उसने हाथोदाँत खरीदा। लेकिन जब वह हाथीदाँत को घास-फूस में छिपाकर गाड़ी में भरकर ला रहा था तो नगर-रक्षकों को पता लग गया और उन्होंने उसे गिरफ्तार कर लिया।
शूर्पारक ( सोप्पारय, नाला सोपारा, जिला ठाणा) व्यापार का दूसरा केन्द्र था, यहाँ बहुत से व्यापारियों (नेगम ) के रहने का उल्लेख है । भृगुकच्छ और सुवर्णभूमि (बर्मा) के साथ इनका व्यापार चलता था। __ सौराष्ट्र के व्यापारी वारिवृषभ जहाज से समुद्र के रास्ते पांडु. मथुरा ( मदुरा) आया-जाया करते थे। धन, कनक, रत्न, जनपद, रथ और घोड़ों से समृद्ध द्वारका (बारवइ) सौराष्ट्र का प्रधान नगर था। व्यापारी यहाँ तेयालगपट्टण ( वेरावल ) से नावों के द्वारा अपना माल लेकर आते थे। घोड़े के व्यापारियों द्वारा घोड़े लेकर यहाँ आने का उल्लेख मिलता है।
वसन्तपुर के व्यापारी व्यापार के लिए चंपा जाया करते थे।'
१. आवश्यकचूर्णी, पृ० १२०; सूत्रकृतांगटीका ३.३.१८; मलयगिरि, आवश्यकटीका, पृ० १४.-।।
२. आवश्यकचूर्णी २, पृ० १५४ । ३. बृहत्कल्पभाष्य १.२५०६ । ४. अवदान, २.४७६ (१३ आदि)। ५. श्रावश्यकचर्णी २, पृ० १६७ । ६. वसुदेवहिंडी, पृ० ७७; तथा उत्तराध्ययनटीका २, ३६-अ । ७. निशीथचूर्णी, पीठिका, पृ० ६६ । ८. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५५३ । ६. वही, पृ० ५३१ ।