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१७२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड पोतवणिक रहते थे। एक बार इन लोगों का विचार हुआ कि विविध प्रकार का माल गाड़ियों में भरकर जहाज द्वारा लवणसमुद्र (हिन्द महासागर) को यात्रा करें। इन लोगों ने विविध प्रकार का मालअसबाब अपने छकड़ों में भरा । फिर शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूत में विपुल अशन-पान आदि तैयार कर अपने इष्ट-मित्रों को आमन्त्रित किया । तत्पश्चात् अपने छकड़ों को जोतकर वे गंभीरपोतपट्टण (एक बंदरगाह) पर पहुँचे । वहां पहुँच कर उन्होंने छकड़ों को छोड़ दिया, पोतवहन को सज्जित किया, उसे तंदुल, आटा, तेल, गुड़, घी, गोरस, जल, जल के पात्र, औषध, तृण, काष्ठ, आवरण, प्रहरण आदि अपने लिए आवश्यक सामग्री से भरा। उसके पश्चात् पोत को पुष्पबलि प्रदान कर, सरस रक्त चंदन के पांच उंगलियों के छापे मार, धूप जलाकर, उन्होंने समुद्र-वायु की पूजा की। फिर पतवारों को उचित स्थान पर रखा, ध्वजा को ऊपर लटकाया, शुभ शकुन ग्रहण किये और राजा का आदेश प्राप्त होते ही वणिक लोग नाव पर सवार हो गये । स्तुतिपाठकों ने मंगलगान किया और नाव के वाहक, कर्णधार, कुक्षिधार (डांड चलानेवाले) और गर्भिज्जक (खलासी) आदि कर्मचारी अपने-अपने काम में व्यस्त हो गये, उन्होंने लंगर छोड़ दिया और नाव तीत्र गति से लवणसमुद्र में आगे बढ़ी। इस प्रकार कई दिन और रात यात्रा करने के पश्चात् वणिक् लोगों ने मिथिला नगरी में प्रवेश किया।
चम्पा में माकंदी नाम का एक सार्थवाह रहता था। उसके जिनपालित और जिनरक्षित नाम के दो पुत्र थे। उन्होंने बारहवीं बार,लवणसमुद्र की यात्रा की । लेकिन इस बार उनका जहाज फट गया और वे रत्नद्वीप में जा लगे । यहाँ पहुँचकर उन्होंने नारियल के तेल से शरीर की मालिश की। ___ छह महीने तक जहाज के समुद्र में डोलायमान होते रहने का उल्लेख मिलता है । ऐसे संकट के समय वणिक् लोग धूप आदि द्वारा देवता की पूजा कर, उसे शान्त रखते थे।'
१. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ० ६७ आदि । २. वही, ६, पृ० १२१ आदि । ३. निशीथचूर्णी १०.३१८४ चूर्णी, पृ० १४२ ।