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________________ १६६ जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड राजा को उनके विचार और उनको भावनाओं को सम्मानित करने के लिए बाध्य होना पड़ता । ' I शिल्पकारों की श्रेणियों की भाँति व्यापारियों की भी श्रेणियाँ थीं जिनमें नदी या समुद्र से यात्रा करनेवाले व्यापारी सार्थवाह शामिल थे । कितने ही सार्थों के उल्लेख मिलते हैं जो विविध माल असबाब के साथ एक देश से दूसरे देश में आते-जाते रहते थे । सार्थवाह राजा की अनुज्ञापूर्वक गणिम ( गिनने योग्य; जैसे जायफल, सुपारी आदि), धरिम ( रखने योग्य; जैसे कंकु, गुड़ आदि ), मेय ( मापने योग्य; जैसे घी, तेल आदि ) और परिच्छेद्य ( परिच्छेद करने योग्य जैसे रत्न, वस्त्र आदि ) नामक चार प्रकार का माल लेकर धन कमाने के लिए परदेश गमन करते थे । २ सार्थवाह अपनी गाड़ियों माल भरकर अपने सार्थ के साथ मार्ग में ठहरते हुए चलते थे । सार्थवाह को गणना प्रमुख राजपुरुषों में की गयी है; धनुर्विद्या और शासन में वह कुशल होता था । गमन करने के पूर्व ये लोग मुनादी कराकर घोषणा करते कि जो कोई उनके साथ यात्रा पर चलना चाहे तो उसके भोजन, पान, वस्त्र, बर्तन और औषधि आदि की व्यवस्था मुफ्त की जायेगी । वास्तव में उन दिनों में व्यापार के मार्ग सुरक्षित नहीं थे, रास्ते में चोर डाकुओं और जंगली जानवरों आदि का भय रहता था, इसलिए व्यापारी लोग एक साथ मिलकर किसी सार्थवाह को अपना नेता बना, परदेश यात्रा के लिए निकलते । श्रेष्ठी १८ श्रेणिश्रेणियों का मुखिया माना जाता था । " १. देखिए दीक्षितार, हिन्दू एडमिनिस्ट्रेटिव इंस्टिट्यूशन्स, पृ० ३३६-४७ । २. अनुयोगद्वारचूर्णी, पृ० ११; तथा बृहत्कल्पभाष्य १.३०७८ । ३. निशीथसूत्र ६.२६ की चूर्णी । ४. श्रावश्यकटीका (हरिभद्र), पृ० ११४ - श्र आदि । 1 ५. बृहत्कल्पभाष्य ३.३७५७; तुलना कीजिए राइस डेविड्स, कैम्ब्रिज हिस्ट्री व इंडिया, पृ० २०७ । बौद्ध ग्रन्थों में श्रावस्ती के अनाथपिंडक नामक एक अत्यन्त धनी श्रेष्ठी का उल्लेख है, जो बौद्ध संघ का बड़ा प्रभावक था ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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