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१६४ जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड इभ्य' और श्रेष्ठी भी धनवानों में गिने जाते थे। श्रेष्ठी के मस्तक पर सुवणे-पट्ट बँधा रहता था। ये लोग अपने अतिरिक्त धन को भोग-विलास तथा दान आदि में खर्च करते या फिर उसे गाड़कर या व्याज-बट्टे पर चढ़ाकर उसकी रक्षा करते । वाणिज्यग्राम के आनन्द गृहपति ने चार कोटि हिरण्य जमीन में गाड़कर रक्खा था और चार कोटि व्याज पर चढ़ाया था। वह ४ ब्रज ( चालीस हजार गायें ), ५०० हल, ५०० गाड़ियाँ तथा अनेक वाहन, यानपात्र आदि का मालिक था।'
प्रबन्ध ' प्रबन्धको का काम है उद्योग-धन्धे की योजना बनाना, भूमि, श्रम और पूँजी को उचित अनुपात में एकत्रित करना तथा जरूरत होने पर नुकसान सहने के लिए तैयार रहना । वह व्यापार की नीति निश्चित करता है और व्यापार पर अपना नियन्त्रण रखता है।
अठारह श्रेणियाँ यह अद्भुत बात है कि उन दिनों उद्योग-धन्धे बहुत कमजोर हालत में थे और औद्योगिक कार्यों में रोकड़ लगाने के लिए पैसे का अभाव था, फिर भी व्यापारिक संगठन मौजूद थे। सुवर्णकार, चित्रकार और रजक (धोबी ) जैसे महत्त्वपूर्ण कारीगरों का संगठन था, जिसे श्रेणी कहा जाता था । बौद्ध सूत्रों की भाँति जैनसूत्रों में भी १८ प्रकार की श्रेणियों का उल्लेख है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में कहा है कि
१. यद्रव्यस्तूपांतरितउच्छितकदलिकादण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति श्रुतिः--स्थानांगटीका ६,३३६-अ ।
२. श्रीदेवतामुद्रायुक्त सुवर्णपट्टविभूषितोत्तमांगः, राजप्रश्नीयटीका, सूत्र १४८, पृ० २८५।
३. उपासकदशा १, पृ० ७ ।
४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका ३.१६३ में कुम्भार, पट्टइल्ल ( जैनाचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि ने 'तीर्थंकर महावीर' भाग २ में इसका अर्थ रेशम बुननेवाला किया है जो ठीक मालूम होता है ), सुवण्णकार, सूवकार, गन्धव्व, कासवग, मालाकार, कच्छकार (काछी) और तंबोलिक नाम के नौ नारू, तथा चर्मकार, यंत्रपीलनक (तेली), गंछिय, छिपाय, कंसकार, सीवग, गुबार (ग्वाला), भिल्ल और धीवर नाम के नौ कारू का उल्लेख है। महाउमग्ग जातक (५४६), में