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________________ १५८ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड गया । दूकानदार ने उससे कहा, या तो तुम कर्ज चुकाओ, नहीं तो गुलामी करनी पड़ेगी। विधवा ने लाचार होकर दूकानदार की गुलामी स्वीकार कर ली। ऋणदास जिसे ऋणग्रस्त होने के कारण दासवृत्ति स्वीकार करनी पड़ी हो, ऐसा व्यक्ति यदि दीक्षा ग्रहण करना चाहे तो उसे दीक्षा का निषध है। ऐसे व्यक्ति को यदि कहीं परदेश में दीक्षा दे दी जाये और संयोगवश साहूकार उसे पहचान ले, और उसे जबर्दस्ती से अपने घर ले जाना चाहे तो आचार्य को चाहिए कि वह गुटिका आदि के प्रयोग से अपने दीक्षित शिष्य के स्वर में परिवर्तन पैदा कर, अथवा विद्या, मंत्र अथवा योग के बल से उसे अन्य स्थान को भेजकर, या कहीं छिपाकर उसकी रक्षा करे । और यदि इस तरह के साधन न हों तो नगर के प्रधान को वश में करके, पाखंडी साधुओं की सहायता लेकर, अथवा सारस्वत, मल्ल आदि बलवान गणों की सहायता प्राप्त कर, अपने शिष्य की रक्षा में प्रवृत्त होना चाहिए। यह सब सम्भव न होने पर विद्या आदि के बल से धन कमाकर और उसका कर्जा चुकाकर दीक्षित साधु को दासवृत्ति से मुक्त करने का विधान है। दुर्भिक्षदास दुर्भिक्षकाल में बनाये हुए दास को भी छुड़ाने का उल्लेख है। मथुरा के किसी वणिक् ने अपनी कन्या को अपने एक मित्र को सौंपकर जैन दीक्षा ग्रहण कर ली । कुछ समय के बाद उसका मित्र मर गया । नगर में दुर्भिक्ष पड़ा और वणिक की कन्या को दासवृत्ति स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा । इस बीच में कन्या का पिता साधुवेश में भ्रमण करता हुआ वहां आ पहुंचा। उसने अपनी कन्या कत दासवृत्ति से छुड़ाने के लिए अनेक प्रयत्न किये । पहले तो उसने कन्या के मालिक को समझाया-बुझाया, न मानने पर धमकी दी और उसे बुरा-भला कहा । इन उपायों से सफलता न मिलने पर, किसी तरह १. पिण्डनियुक्ति ३१७-३१६ । अर्थशास्त्र (३.१३.२२, पृ० ६७) में उल्लेख है कि ऋण चुका देने पर दास आर्यत्व को प्राप्त कर लेता है । २. बृहत्कल्पभाष्य ६.६३०१-६ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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