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________________ १५६ जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड श्रम प्राचीन भारत में श्रम की व्यवस्था के सम्बन्ध में ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिलती । जैनसूत्रों में कम, शिल्प अथवा जाति से होन (जुंगिय) समझे जानेवाले लोगों का उल्लेख है। कर्म और शिल्प से हीन समझे जानेवालों में स्त्री, मोर और मुर्गे पालनेवाले, चर्मकार, नाई (हाविय), धोबी (सोहग; णिल्लेव)', नट नर्तक, लंख, रस्सी का खेल दिखानेवाले बाजीगर, व्याध, खटीक और मच्छीमारों को गणना की गयी है। इसके सिवाय, निम्नलिखित १५ कर्मादानों को निकृष्ट कहा है-अंगारकर्म ( कोयला बनाने का व्यापार ), वनकर्म ( जंगल काटने का व्यापार) शकटकम (गाड़ी से आजीविका चलाना), भाटकर्म (बैल-गाड़ी भाड़े पर चलाना ), स्फोटकर्म (हल चलाकर खेती करना ), दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, केशवाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, यन्त्रपीड़नकर्म, निर्लाछनकर्म ( बैलों को बधिया करना ), दावाग्निदापन (जंगलों में आग लगवाना), सरोवर, द्रह और तालाब का शोषण तथा असतीपोषण । दास और नौकर-चाकर घर में काम करनेवाले नौकर-चाकरों में कर्मकर (कम्मकर), घोट (चट्ट), प्रेष्य (पेस), कौटुंबिक पुरुष, भृतक, दास और गोपालकों का उल्लेख मिलता है। ये लोग धर्म-कर्म के मामलों में साधारणतया उत्साही नहीं थे। जैन साधुओं को ये अक्सर मजाक उड़ाया करते । कितनी ही बार घर के नौकरों-चाकरों और साधओं में कहासुनी हो जाती और नौकरों के कहने पर गृहस्थ लोग साधुओं को अपने घरों से हटा देते । दासप्रथा का चलन था। दास और दासी घर का काम-काज करते हुए अपने मालिक के परिवार के ही साथ रहते । केवल राजा' १. सिंधुदेश में धोषियों की गणना जुगुप्सित जातियों में नहीं की जाती यी । दक्षिणापथ में लुहार और कलाल जुगुप्सित समझे जाते थे, निशीथचूर्णी ४. १६१८ की चूर्णी, ११.३७०८ की चूर्णी । २. निशीथचूर्णी ४.१६१८ की चू'; ११.३७०६-८ की चूर्णी । ३. उपासकदशा १ पृ० ११ । ४. बृहत्कल्पभाष्य १.२६३४ । ५. तुलना कीजिए औपपातिक ६, पृ० २० ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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