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तृ० खण्ड] पहला अध्याय : उत्पादन
१५१ हुए गोदड़ों आदि के साथ लेट जाते।' बर्तनों पर पालिश करनेवाले पत्थरों (घुट्टक) का उल्लेख मिलता है।'
चर्मकार चर्मकार अथवा पदकार चमड़े का काम करते थे। वे लोग चमड़े से पानी की मशक (देयडा-दृतिकाराः), चर्मेष्ट (चमड़े से वेष्टित पाषाण वाला हथियार)' तथा किणिक ( एक वाद्य) तैयार करते थे । ये अनेक प्रकार के जूते भी बनाते थे । कत्ति (कृत्ति= चर्मखण्ड) जैन साधुआं के उपयोग में आनेवाला चमड़े का एक उपकरण था। फलों आदि की, धूल-मिट्टी से रक्षा करने के लिए फलों को इस पर फैला देते थे । वस्त्र के अभाव में भी इसका उपयोग किया जा सकता था। जैन साध्वियों के लिए निर्लोम चर्म धारण करने का विधान है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और जंगली जानवरों के चमड़े का उल्लेख प्राचीन जैन सूत्रों में मिलता है। साध्वियों के रुग्ण हो जाने पर उनके लिए व्याघ्र (दीवि ) और तरच्छ (व्याघ्र को एक जाति ) के चर्म के उपयोग करने का विधान है।'' कुत्ते के चमड़े का उल्लेख मिलता है।
पुष्पमालायें आदि उद्यानों में प्रचुर मात्रा में फल-फूल लगते थे । माली (मालाकार )। एक-से-एक सुन्दर माला और पुष्पगुच्छ गूंथकर तैयार करते थे
१. निशीथचूर्णी ११, पृ० २६२ । २. पिंडनियुक्तिटीका १५ । ३. निशीथचूर्णी ११, पृ० २७१ । ४. प्रज्ञापना १.७० । ५. आवश्यकचूर्णी, पृ० २६२ । । ६. व्यवहारभाष्य ३, पृ० २०-श्र। ७. बृहत्कल्पभाष्य १.२८८ । ८. बृहत्कल्पसूत्र ३.३; भाष्य ३.३८१० । ६. वही, ३.३८२४ । १०. वही, ३.३८१७ आदि । ११. वही, १.१०१६ । - -