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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड से छाते ( वासत्ताण ) तथा झाडुएं (वेणुसंपच्छणी ) और बाँस की पेटियाँ ( वेणुफल ) बनायी जाती थीं । छौंकों (सिक्कक ) का उपयोग किया जाता था। छींकों में, पात्र के अभाव में, जैन श्रमण फल आदि भरकर ले जाते । बहंगी ( कापोतिका ), आवश्यकता पड़ने पर आचार्य, बालक अथवा गम्भीर रोग से पीड़ित किसी साधु को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के काम में आती। दर्भ और मुञ्ज से साधुओं की रजोहरण, और बोरियाँ (गोणी) बनाई जाती।' कम्मंतशालाओं में दर्भ, छाल और वृक्षों आदि के द्वारा अनेक वस्तुएँ तैयार की जाती। भोजपत्र (भुज्जपत्त ) पर संदेश आदि लिखकर भेजा जाता।
अन्य उद्योग-धन्धे अन्य उद्योग-धन्धों में रंग बनाने का उल्लेख किया जा सकता है। चिकुर (पीत वर्ण का एक गन्ध द्रव्य ), हरताल, सरसों, किंशक ( केसू), जपाकुसुम और बंधुजीवक के पुष्प, हिंगुल ( सिंदूर ), कुंकुम ( केसर), नीलकमल, शिरीष के पुष्प तथा अंजन आदि द्रव्यों से रंग बनाये जाते थे। हल्दी, कुसुंभा और कर्दम रंग के साथसाथ किरमिची (किमिराय ) रंग का भी उल्लेख किया गया है। लाक्षारस भी एक महत्वपूर्ण उद्योग था; लाख ‘से स्त्रियाँ और बालक अपने हाथ और पैर रंगते थे। जो लोग गृध्रपृष्ठ-मरण स्वीकार करते, वे अपने पृष्ठ और उदर को लाख के लाल रंग से रंजितकर, मरे
१. बृहत्कल्पभाष्य ३.४०६७ । २. राजप्रश्नीयसूत्र २१, पृ० ६३ । ३. सूत्रकृतांग ४.२.८। ४. बृहत्कल्पभाष्य १. २८८६ श्रादि । ५. वही २.३६७५ । ६. आचारांग २, २.३०३ । ७. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५३० । ८. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० १०, तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति १८.६ ।
६. निशीथभाष्य १०.३१६१; अनुयोगद्वारसूत्र ३७; हरिभद्र, आवश्यकटीका, प० ३६६-अ।
१०. वही; उपासक १, पृ० ११; हरिभद्र, वही, पृ० ३६८ ।