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________________ १४८ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड गृह-निर्माण विद्या गृहनिर्माण कला का विकास हुआ था। राज और बढ़ई का काम मुख्य धन्धे गिने जाते थे । मकानों, प्रासादों, भवनों, जीनों ( दद्दर )', तलघरों, तालाबों और मन्दिरों की नीव रखने के लिए अनेक राजगिर और बढ़ई काम किया करते थे। काष्ठ की मूर्तियाँ बनायी जाती थीं। कृष्णचित्र काष्ठ उत्तम काष्ठ समझा जाता था।' बढ़ई लोग बैठने के लिए आसन, पीढ़े, पलंग, खाट, खूटी, सन्दूक, और बच्चों के खेल-खिलौने आदि बनाते। काष्ट के बर्तनों में आयमणी ( लुटिया ) और उल्लंकअ, डोय (गुजराती में डोयो), दब्वी (डोई ) आदि का उल्लेख पाया जाता है। कुशल शिल्पो अनेक प्रकार के वृक्षों की लकड़ियों से खड़ाऊँ ( पाउया) तैयार करते, और उनमें वैड्रय तथा सुन्दर रिष्ट और अंजन जड़कर चमकदार बहुमूल्य रत्नों से उन्हें भूषित करते । इसके अतिरिक्त, जहाज, नाव, विविध प्रकार के यान, गाड़ी, रथ और यन्त्र तैयार किये जाते । रथकार का स्थान सर्वोपरि था, और राजरत्नों में उसकी गिनती की जाती थी। रथकार विमान आदि भी तैयार करते थे। शूर्पारक का कोक्कास बढ़ई एक कुशल शिल्पकार था और उसने अपनी शिल्पविद्या के द्वारा यन्त्रमय कबूतर बनाकर तैयार किये थे । ये कबूतर राजभवन में जाते और वहाँ के गंधशालि चुगकर लौट आते । बाद में राजा का आदेश पाकर उसने एक सुन्दर गरुड़यन्त्र बनाया। इस यन्त्र में राजा-रानो बैठकर आकाश में भ्रमण किया करते थे। कलिङ्गराज के अनुरोध पर उसने सात तल्ले के एक सुन्दर भवन का निर्माण किया था। १. गुजराती में दादर; पिंडनियुक्ति ३६४ । २. आवश्यकचूर्णी, पृ० ११५ । ३ बृहत्कल्पभाष्य ३९६० टीका । ४. निशीथचूर्णी १२.४११३; पिण्डनियुक्ति २५० । ५. बृहत्कल्पभाष्य ३.४०६७ । ६. कल्पसूत्र १.१४; तुलना कीजिए महावग्ग ५.२.१७ पृ० २०६; धम्मपद अहकथा ३, पृ० ३३०, ४५१ । ७. आवश्यकचूर्णी २, पृ० ५६ । ८. आवश्यकचूर्णी, पृ० . ५४१; वसुदेवहिंडी; पृ० ६२ आदि; तथा देखिए धम्मपद अट्ठकथा ३, पृ० १३५ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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