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तृ० खण्ड ] पहला अध्याय : उत्पादन
१४७ राख और गोबर मिलाते । फिर इस मिट्टी के लोंदे को चाक पर रखकर घुमाते और इच्छानुसार करय (हिन्दी में करवा),' वारय, पिहडय, घडय, अद्धघडय, कलसय ( कलसा ), अलिंजर, जंबूल, उट्टिय ( औष्टिक ) आदि बर्तन तैयार करते । तीन प्रकार के कलशों (कुड ) का उल्लेख है-निष्पावकुट (गुजराती में वाल), तेलकुट और घृतकुट । गीले बर्तनों को धूप में या आगमें रखकर सुखाते । कुम्भकारशाला (फरुसगेह )४ के कई विभाग रहते । पण्यशाला में बर्तनों की बिक्री की जाती, भांडशाला में उन्हें इकट्ठा करके रक्खा जाता, कर्मशाला में उन्हें तैयार किया जाता, पचनशाला में उन्हें पकाया जाता,
और ईधनशाला में बर्तन पकाने के लिए घास, गोबर आदि संचित किये जाते।"
जुलाहों और लुहारों को शालाओं की भांति कुम्भकारशाला में भी जैनश्रमण ठहरा करते थे।६ पोलासपुर का कुम्हार सद्दालपुत्त जैनधर्म का सुप्रसिद्ध अनुयायी था। हालाहल श्रावस्ती की प्रसिद्ध कुम्हारनी थो । मंखलिपुत्र गोशाल के मत को वह अनुयायिनी थी, और गोशाल उसकी शाला में ठहरा करते थे।
१. जैन श्रमण करक अथवा धर्मकरक को पानी रखने के काम में लाते थे, बृहत्कल्पभाष्य १.२८८२ । चुल्लवग्ग ( ५.७.१७, पृ. २०७) में भी इसका उल्लेख है। इसमें पानी छानने को छन्ना लगा रहता था जिससे पानी जल्दी ही छन जाता था । सम्भवतः यह पात्र लकड़ी का होता था।
२. उपासकदशा ७, पृ० ४७-८; अनुयोगद्वारसूत्र १३२, पृ० १३६ । तथा देखिए कुसजातक (५३१), पृ० ३७२। .
३. उत्तराध्ययनटीका ३, पृ० ७३ । आवश्यकचूर्णी, पृ० १२२ में चार प्रकार के घटों का उल्लेख है :-छिद्दकुड्ड, बोडकुड्ड, खंडकुड्ड और सगल ।
४ निशीथभाष्यं १०.३२२८ । ५. वही १६.५३६०; बृहत्कल्पभाष्य २,३४४४ आदि ।
६. देखिए आवश्यकचूर्णी, पृ० २८५; हरिभद्र, आवश्यकटीका, पृ० ४८४ आदि ।
७. व्याख्याप्रज्ञप्ति १५ । ...........