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तृ० खण्ड ] पहला अध्याय : उत्पादन हार ( अठारह लड़ी वाला), अर्धहार ( नौ लड़ी का हार), एकावलि (एक लड़ी का हार ), कनकावलि, रत्नावलि, मुक्तावलि ( मोतियों का हार ), केयूर, कडय ( कड़ा), तुडिय (बाजूबंद), मुद्रा ( अंगूठी), कुण्डल, उरसूत्र, चूडामणि और तिलक । हार, अर्धहार, तिसरय (तीन लड़ी का हार), प्रलंब ( नाभि तक लटकने वाला हार), कटिसूत्र (करधौनी), अवेयक (गले का हार ), अंगुलीयक ( अंगूठी), कचाभरण (केश में लगाने का आभरण), मुद्रिका, कुण्डल, मुकुट, वलय (वीरत्वसूचक कंकण), अंगद (बाजूवंद), पादप्रलंब (पैर तक लटकने वाला हार ), और मुरवि (आभरण विशेष )" नामक आभूषण पुरुषों द्वारा धारण किये जाते थे, तथा नूपुर, मेखला (करधौनो), हार, कडग ( कड़ा), खुद्दय (अंगूठी), वलय, कुण्डल, रत्न और दीनारमाला स्त्रियों के आभूषण माने जाते थे। सुवर्णपट्ट से श्रेष्ठियों का मस्तक भूषित किया जाता और नाममुद्रिका अंगुली में पहनी जाती थी। हाथी और घोड़ों को भी आभूषणों से सज्जित किया जाता । हाथियों के गले में सुवर्ण और मणि-मुक्ता से जटित हार तथा गायों को मयूरांगचूलिका पहनायो जाती।
राजा-महाराजा और धनिक लोग सोने के बर्तनों में भोजन करते; इनमें थाल, परात (थासग) आदि मुख्य थे। बैठने के पोढ़े (पावोढ),
१. राजा श्रेणिक के पास अठारह लड़ी वाला सुन्दर हार था; उसकी उत्पत्ति के लिए देखिए आवश्यकचूर्णी २, पृ० १७०। चालीस हजार के हार के लिए देखिए उत्तराध्ययनटीका १३, पृ० १९१-श्र।
२. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका ३, पृ० २१६-१; निशीथसूत्र, ७.७ । टिक्किद (टीका) का उल्लेख उत्तराध्ययनटीका २, पृ० ५४ में मिलता है।
३. औपपातिकसूत्र ३१, पृ० १२२; कल्पसूत्र ४.६२ । ४. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ० ३० । ५. राजप्रश्नीयसूत्र १३७ ।।
६. कल्पसूत्र ३.३६ पृ० ५६; निशीथसूत्र ७. ७; तथा देखिए धम्मपद अकथा १, पृ० ३६४।।
७. हरिभद्र, आवश्यकटीका, पृ० ७०० । ८. विपाकसूत्र २, पृ० १३ । ६. व्यवहारभाष्य ३.३५ ।
१०. तृण, पलाल, छगण (गोबर) और काष्ठ के पीढ़ों का उल्लेख निशीथसत्र १२.६ में किया गया है। .....