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१४२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [तृ• खण्ड जस्ता, सीसा, चाँदी (हिरण्य अथवा रूप्य ), सोना (सुवर्ण), मणि, रत्न और वज्र उपलब्ध होते थे।' धातुओं के उत्पत्ति स्थान को आकर कहा गया है। कालियद्वीप अपनी हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वन की खानों के लिए प्रसिद्ध था। भारत के व्यापारी यहाँ की बहुमूल्य धातुओं को अपने जहाजों में भरकर स्वदेश लाते थे ।
अन्य खनिज पदार्थों में लवण (नमक), ऊस (साजीमाटी), गेरु, हरताल, हिंगुलक (सिंगरफ), मणसिल (मनसिल), सासग (पारा), सेडिय ( सफेद मिट्टी), सोरट्ठिय और अंजन आदि के नाम मिलते हैं।
आभूषण और रत्न आदि स्त्रियां आभूषणों की शौकीन थीं। वे सोने-चांदी के आभूषण धारण करती थीं, अतएव सुनारों (सुवण्णकार) का व्यापार खूब चलता था।' कुमारनन्दी चंपा का एक प्रसिद्ध सुनार था। उसने राजकुल में सुवर्ण को भेंटकर, पटह द्वारा घोषणा की थी कि जो कोई उसके साथ पंचशैल को यात्रा करेगा उसे वह बहुत-सा रुपया देगा। मूसियदारय तेयलिपुर का दूसरा सुप्रसिद्ध सुवर्णकार (कलाय) था। सुनार बेईमानी भी करते थे; किसी ने एक सुनार से सोने के मोरंग (कुंडल) घड़ने को कहा, लेकिन उसने तांबे के बनाकर दे दिये।
चौदह प्रकार के आभूषणों का उल्लेख जैनसूत्रों में मिलता है :
१. निशीथसूत्र ५.३५; ११.१; प्रज्ञापना १.१७; स्थानांग ४.३४६ । २बृहत्कल्पभाष्यटीका १.१०६० । ३. ज्ञातृधर्मकथा १७, पृ० २०२ ।
४. उत्तराध्ययनसूत्र ३६.७४; सूत्रकृतांग २, ३.६१; प्रज्ञापना १.१७; निशीथसूत्र ४.३६ ।
५. बौद्धसूत्रों के अनुसार विशाखा के आभूषण तैयार होने में चार महीने लगे थे, जिसमें पांच सौ सुनारों ने दिन और रात काम किया था, धम्मपद अट्ठकथा १, पृ० ३८४ श्रादि ।
६. आवश्यकचूर्णा, पृ० ३६७ । ७. ज्ञातृधर्मकथा १४ । ८. निशीथचूर्णी ११.३७०० की चूर्णी ।