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१४० जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड तिसिरा, भिसिरा, घिसरा, विसिरा, हिल्लिरी, झिल्लिरी, जाल, गल, कूटषाश, वक्रबंध, सूत्रबंध, बालबंध आदि प्रकारों द्वारा मछलियाँ पकड़ा करते । मछलियों से वे अपनी नावें भर लेते, उन्हें किनारे पर लाते; फिर धूप में सुखा, उन्हें बाजार में बेच देते ।' इसी प्रकार कच्छप, ग्राह, मगर और सुंसुमारों के सम्बन्ध में भी कहा गया है । मच्छीमार इन्हें पकड़कर इनका मांस भक्षण करते।
उत्पादनकर्ता
वस्त्र-कताई और बुनाई कृषि के पश्चात् बुनाई एक महत्वपूर्ण उद्योग गिना जाता था । पाँच शिल्पकारों में कुंभकार, चित्रकार, लुहार, (कर्मकार) और नाई ( काश्यप ) के साथ वस्त्रकार ( णंतिक ) भी गिनाये गये हैं। नलदाम नाम के वस्त्रकार (कुविंद ) का उल्लेख आता है। वस्त्रकारों में दूष्य (दुस्स; हिन्दी में धुस्सा) का व्यापार करनेवालों को दोसिय (महाराष्ट्र और गुजरात के दोशी), सूत्र का व्यापार करने वालों को सोत्तिय ( सौत्रिक ) और कपास का व्यापार करने वालों को कप्पासिय ( कासिक) कहा जाता था। इसके अतिरिक्त, तुन्नाग (तूमने वाले), तन्तुवाय (बुनकर ), पट्टकार ( पट्टकूल यानी रेशम का काम करने वाले पटवे), तथा सीवग (सीने वाले दर्जी) और छिपाय (हिन्दी में छिपी ) आदि के भी उल्लेख मिलते हैं।
पहले कपास (सेडुग ) को ओटकर (रुंचंत ) उसकी रुई बनायी जाती, फिर उसे पीजते (पिंजिय) और उससे पूनी ( पेलु ) तैयार को जाती। कपास, दुगुल्ल और मूंज ( वच्चक; मुंज) के
१. विपाकसूत्र ८, पृ० ४६ श्रादि, व्यवहारभाष्य ३, पृ० २०-अ।" २. प्रज्ञापनासूत्र १.५० । ३. आवश्यकचूर्णी, पृ० १५६ । ४. उत्तराध्ययनटीका ३, पृ० ५८। ५. प्रज्ञापनासूत्र १.६६-७० । ६. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २, पृ० १६३-अ। ७. बृहत्कल्पभाष्य १.२६६६; पिण्डनियुक्ति ५७४ । ८. निशीथचूर्णी ७, पृ० ३६६; सूत्रकृतांगटीका २, ६, पृ० ३८८ ।।