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तृ० खण्ड] पहला अध्याय : उत्पादन जाता।' तीतरों को फँसाने के लिये बाज़ ( वोरल्ल) के पाँव में ताँत बाँध कर उसे तीतरों में छोड़ देते । अण्डों का व्यापार होता तथा अण्डों के व्यापारी प्रतिदिन कुदाली और टोकरी लेकर अपने कर्मचारियों को जंगल में भेजते, जहाँ वे कौए, उल्लू , कबूतर, टिट्टिभ, सारस, मोर, कुक्कुट (मुर्गा) आदि के अण्डों की तलाश में रहते। इन अण्डों को वे तवे, कवल्ली (मिट्टी का तवा), कन्दुय और भर्जन आदि में भूनते और आग में तलते। तत्पश्चात् राजमार्ग और दुकानों पर बैठकर उन्हें बेचते । मयूर-पोषकों का उल्लेख मिलता है। लोग गृह-कोकिल', तीतर, शुक और मदनशालिका (मैना) आदि को पालते।
मच्छीमार मछलियाँ पकड़ने का पेशा करते । मछलियों में सह (श्लक्ष्ण ) खवल्ल, मुंग, विज्झिडिय, हलि, मगरि, रोहित, हलीसागर, गागर, वड, वडगर, गब्भय, उसगार, तिमि, तिमिगिल, नक्र, तंदुल, कणिका, सालि, सत्थिया (स्वस्तिक), लंभन, पताका और पताकातिपताका नाम को मछलियों के उल्लेख मिलते हैं। गल (बड़िशमछली पकड़ने का कांटा) और मगरजालों को मछली पकड़ने के काम में लिया जाता । लोहे के कांटे में मांस के टुकड़े लगाकर, एक लम्बी रस्सी को पानी में डालकर मछलियाँ " पकड़ी जाती । मछलियों को पकड़कर उन्हें साफ किया जाता, और फिर उनका मांस भक्षण किया जाता। सोरियपुर नगर के उत्तर-पूर्व में मच्छीमारों की एक बाड़ो ( मच्छंढवाडग ) थी जहाँ बहुत से मच्छीमार रहा करते थे। ये लोग यमुना नदी में मछली पकड़ने जाते । वहाँ नदी के जल को छानकर (दहगालण), मथकर (दहमहण) और प्रवाहित कर (दहपवहण ), तथा अयंपुल, पंचपुल, मच्छंधल, मच्छपुच्छ, जंभा,
१. उत्तराध्ययनसूत्र १६.६५ । २. निशीथभाष्य २.११६३ की चूर्णी; ४.१६७२ की चूर्णी । ३. विपाकसूत्र ३, पृ० २२ ।। ४. व्यवहारभाष्य ३, पृ० २. -अ; ज्ञातृधर्मकथा ३, पृ० ६२ । ५. श्रोधनियुक्ति, ३२३, पृ० १२६ । ६. श्रावश्यकचूर्णी, पृ० ५५८ । ७. प्रज्ञापनासूत्र १.५० । ८. निशीथभाष्यचूर्णी ४.१८०५। ६. उत्तराध्ययनसूत्र १६.६४ ।