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तृ० खण्ड ]
पहला अध्याय : उत्पादन
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में मुर्दे जलाये और गाड़े जाते थे । अधिकांश जमीन वन और जंगलों से घिरी थी । अनेक स्थानों पर लोहा, सोना, चांदी आदि की खानें ( आकर ) थीं । नदी तट की जमीन प्रायः खेती के काम में नहीं आती थी ।
चरागाहों (दविय ) में गाय, बैल, भेड़, बकरी आदि पशु चरा करते थे । दावाग्नि ( जंगल में आग लगाना ) की गणना पन्द्रह कर्मदानों में की गई है, इससे खेती के लिए जमीन तैयार की जाती थी । ग्वाले ( गोवाल ) और गड़रिए ( अजापाल; छागलिय ) अपनी गायों और भेड़-बकरियों को चराने के लिए चरागाहों में ले जाते थे । उत्तराध्ययनटीका में एक पशुपाल का उल्लेख मिलता है जो बकरियों को वटवृक्ष के नीचे बैठाकर अपनी धनुही ( घणुहिया ) पर बकरियों की लेंड़ी चढ़ा, उनके द्वारा वृक्ष के पत्तों को छेदता
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रहता था ।
पशुपालन और दुग्धशाला
प्राचीन भारत में पशु महत्वपूर्ण धन माना जाता था तथा गाय, बैल, भैंस और भेड़ें राजा की बहुमूल्य संपत्ति गिनी जाती थी । प्रज्ञापनासूत्र में अश्व, अश्वतर, घोटक, गर्दभ, उष्ट्र ( करह = करम), गाय, नीलगाय, भैंस, मृग, साबर, वराह, शरभ आदि पशुओं का उल्लेख मिलता है ।" पशुओं के समूह को ब्रज ( वय ), गोकुल, अथवा संगिल्ल कहा जाता था; एक व्रज में दस हजार गायें रहती थीं । गायों की बीमारी का उल्लेख मिलता है ।' कंचनपुर के राजा करकंडु को गाय ( गोकुल ) पालने का बहुत शौक था, अनेक गोकुलों का वह स्वामी
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१. आचारांगटीका २, ३.२.३५० ।
२. उपासकशा १, पृ० ११ ।
३. ५, पृ० १०३ ।
४. पपातिक सूत्र ६; तथा हरिभद्र, श्रावश्यकटीका, पृ० १२८ ।
५. १.३४; दस प्रकार के चतुष्पदों को उल्लेख निशीथभाष्य २.१०३४ में
है; तथा निशीथसूत्र ६.२२ ।
६. व्यवहारभाष्य २.२३ ।
७. उपासकदशा १, पृ० ६; तथा बृहत्कल्पभाष्य ३.४२६८ ।
८. निशीथचूर्णी ५, पृ० ३६० ।
६. राजा श्रेणिक के सर्वरत्नमय वृषभ मौजूद था, आवश्यकचूर्णी पृ. ३७१