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१३० जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड या गट्ठर में बांधकर नगर में बिक्री के लिए ले जाते ।' कच्चे फलों को पकाने के लिए अनेक उपाय किये जाते। आम आदि को घास, फूस अथवा भूसे के अन्दर रखकर गर्मी पहुँचायी जातो जिससे वे जल्दी हो पककर तैयार हो जायें। इस विधि को इंधनपर्यायाम कहा गया है । तिन्दुक आदि फलों को धूआं देकर पकाया जाता । पहले एक गड्ढा खोदकर उसमें कंडे की आग भर दी जातो; इस गड्ढे के चारों ओर और गड़े बनाये जाते और उन्हें कच्चे फलों से भर दिया जाता । इन गड़ों में छिद्र बने रहते जो बीच के गड़े से जुड़े रहते । इस प्रकार कंडे की आग का धूआं सब गड्ढों में पहुँचता रहता और इसकी गर्मी से फल पक कर तैयार हो जाते । इस विधि की धूमपर्यायाम कहा गया है । ककड़ी, खीरा और बिजौरा आदि को पक्के फलों के साथ रख दिया जाता जिससे पक्के फलों की गंध से कच्चे फल भी पक जाते। इसे गंधपर्यायाम कहा है। बाको फल समय आने पर स्वयं ही वृक्षों पर पक जाते, इस विधि को वृक्षपर्यायाम कहा गया है। __कोंकण के निवासी फूलों और फलों के बहुत शौकीन थे, और इन्हें बेचकर वे अपनी आजीविका चलाते थे। उत्सवों के अवसर पर पुष्पगृहों का निर्माण किया जाता । ___ फल-फूल के अतिरिक्त, कुंकुम ( केसर ), कपूर, लौंग, लाख, चन्दन, कालागुरु (अगर ), कुन्दरक्क,, तुरुक्क, और मधु आदि का उल्लेख भी जैनसूत्रों में मिलता है।" माक्षिक ( मधुमक्खियों के छत्ते से निकाला हुआ), कुत्तिय ( कोत्रिक) और भ्रामर (भौरों के छत्ते से प्राप्त ) मधु का उल्लेख है।
खेती के काम में न आनेवाली जमोन बंजर कहलाती थी । जमीन
१. बृहत्कल्पभाष्य १.८७२ । २. वही, १.८४१ आदि। ३. वही १.१२३६ । ४. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ०६३,६५, १०३ । ५. वही १, पृ० ३, १० ।
६. आवश्यकचूर्णी २, पृ० ३१६; तथा देखिए चरकसंहिता १, २७, २४५ पृ० ३५१ । सुश्रुत ( १.४५. १३४-३६) में पौत्तिक, भ्रामर. क्षौद्र, माक्षिक, छात्र, श्रा और औद्दालक मधुओं का उल्लेख है। पौत्तिक का लक्षण है-पिंगलामक्षिका महत्यः पुत्तका, तद्भवं पौत्तिकम् ।