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तृ० खण्ड] पहला अध्याय : उत्पादन
१२७ है । तुंबी (मीठा कह.) ईख के साथ बोयी जाती थी, और लोग उसे गुड़ के साथ खाते थे।' तुम्बे में साधु भिक्षा ग्रहण करते थे। बाड़ों (कच्छ) में मूली, ककड़ी आदि शाक-भाजो बोयी जाती थी। वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता और वल्लि आदि के उल्लेख मिलते हैं।
दुष्काल इतना सब होने पर भी, वर्षा आदि के अभाव में भीषण दुष्काल पड़ा करते । सम्राट चन्द्रगप्त मौर्य के काल में पाटलिपुत्र के भयंकर दुष्काल का उल्लेख किया जा चुका है। वज्रस्वामी के समय उत्तरापथ में दुष्काल पड़ने से सारे रास्ते रुक गये थे।" दक्षिणापथ में भी बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा था, जब कि आवागमन के मार्ग बंद हो गए थे। एक बार कोशल देश में दुर्भिक्ष पड़ने पर किसी श्रावक ने बहुत-सा अनाज इकट्ठा कर अपने कोठे में भर लिया। उस समय वहाँ कुछ जैन साधु ठहरे हुए थे । श्रावक ने उनके लिए आहार की व्यवस्था कर दी और उन्हें अन्यत्र विहार नहीं करने दिया। लेकिन कुछ समय बाद, अनाज का दाम महंगा हो जाने पर, लोभ में आकर, उसने अनाज को ऊँची कीमत पर बेच दिया। ऐसी हालत में जैन-साधुओं को भोजनपान के अभाव में आत्मघात करने के लिए बाध्य होना पड़ा, और उनके मृत शरीर को गीध भक्षण कर गये। दुष्काल के समय लोग अपने बाल-बच्चों तक को बेच डालते थे। ऐसे संकट के समय अनेक लोगों को दास-वृत्ति स्वीकार करनी पड़ती थी।'
१. उत्तराध्ययनटीका ५, पृ० १०३ । २. बृहत्कल्पभाष्य १.२८८६ ।। ३. अाचारांगटीका २, ३.३.३५० । ४. उत्तराध्ययनसूत्र ३६.६६ । ५. आवश्यकचूर्णी, पृ० ३६६; निशीथचूर्णी पीठिका ३२ चूर्णी । ६. आवश्यकचूर्णी, पृ० ४०४ । ७. व्यवहारभाष्य १०.५५७-६० । ८. महानिशीथ, पृ० २८ ।
६. व्यवहारभाष्य २, २०७; महानिशीथ, पृ० २८ । काशी में दुर्भिक्ष पड़ने पर लोगों ने कौत्रों, यक्षों और नागों को बलि देना बन्द कर दिया था, वीरक जातक (२०४), २, पृ० ३१८।