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तृ० खण्ड ]
पहला अध्याय : उत्पादन
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कोल्लुक ) में पेरा जाता था; इन स्थानों को यंत्रशाला (जंतसाला ) ३ कहा है | यंत्रपीडन की गणना १५ कर्मादानों में की है; इसके द्वारा गन्ना, सरसों आदि पेरे जाते थे । ईख के खेत को सियार खा थे; उनसे बचने के लिए खेत का मालिक खेत के चारों ओर खाई खुदवा दिया करता ।' पशुओं और राहगीरों से रक्षा करने के लिए खेत के चारों ओर बाड़ लगवा दी जाती थी । पुण्ड्रवर्धन पौडे फसल के लिए प्रसिद्ध था । गन्ने को काटकर उसकी पोरी ( पव्व ) बनाई जाती, उन्हें गोलाकार काटकर उनके टुकड़े ( डगल ) किये जाते और गन्ने का छिलका उतार कर ( मोय ) उसे खाते । घास - पत्ती वाले गन्ने को चोय कहते, और उसके छिलके को सगल कहा जाता । गंडेरियों का उल्लेख मिलता है; इन्हें लोग इलायचो, कपूर आदि डालकर कांटे (शूल ) से खाते थे ।" मत्स्यंडिका, पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर' नाम की शक्करों का उल्लेख मिलता है ।
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१. उत्तराध्ययनसूत्र १६.५३; बृहत्कल्पभाष्य पीठिका ५७५ ।
२. व्यवहारभाष्य १०.४८४ ।
३. उपासकदशा १, पृ० ११; जंबूद्वीपप्रज्ञसिटीका ३, पृ० १९३ श्र बृहत्कल्पभाष्य २.३४६८ ।
४. बृहत्कल्पभाष्य पीठिका ७२१ ।
५. वही, १.६८८; निशीथभाष्य १५.४८४८ और चूर्णी ।
६. तन्दुलवैचारिकटीका, पृ० २६- । बंगाल में दो किस्म के गन्ने होते थे, एक पीला ( पुण्ड्र ) और दूसरा काला बैंगनी या काला जिसे काजोलि या कजोलि कहा जाता था । पुण्ड्र से गंगा के पूर्व में स्थित पुण्ड्रदेश तथा कजोलि से गंगा के पश्चिम में स्थित कजोलक नाम पड़ा, आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑव इण्डिया, रिपोर्ट १८७६ - ८०, बिहार एण्ड बंगाल, जिल्द १५, १८८२, पृ० ३८ । इक्षु के प्रकारों के लिये देखिये सुश्रुत (१.४५.१४६-५०)। निशीथसूत्र १६.८ - ११; भाष्य १६.५४११-१२ ।
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८. उत्तराध्ययनटीका ३, पृ० ६. ज्ञातृकर्मकथा १७, पृ० २०३; प्रज्ञापनासूत्र १७.२२७ । अर्थशास्त्र २.१५.३३.१५ में मत्स्यंडिका ( मीजाँ खांड ) और खंडशर्करा ( गुजराती में खांडसरी ) का उल्लेख है । तथा देखिए चरक १,२७ २४२ पृ० ३५० । पुष्पोत्तर का उल्लेख वैद्यकशब्दसिन्धु में मिलता है । यहाँ इसे पुष्पशर्करा ( गुजराती में फूल साखर ) कहा गया है । पद्मोत्तर सम्भवतः पद्म (कमल) से
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