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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड देवताओं को दी जाती थी।" रक्तशालि, महाशालि और गंधशालि चावल की दूसरी बढ़िया किस्में थीं। बर्षा होने पर छोटी-छोटी क्यारी बनाकर चावलों (शालि अक्षत ) को खेतों में बोया जाता, फिर दोतीन बार करके उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोपते और खेत के चारों ओर बाड़ लगाकर उनको रक्षा करते । कुछ समय बाद, जब हरे-हरे धान पक जाते, उनकी मस्त गन्ध सर्वत्र फैलने लगती, उनमें दूध भर आता, फल लग जाते और वे पीले पड़ जाते, तो उन्हें तीक्ष्ण दंतिया से काट लेते। फिर उन्हें हाथ से मल और छड़-पिछोड़कर कोरे घड़ों में भरकर रख देते। इन घड़ों को लीप-पोतकर उन पर मोहर लगा, उन्हें कोठार (कोट्टागार ) में रख दिया जाता। संबाध ( अथवा संवाह ) भी एक प्रकार का कोठार ही होता था जिसे पर्वत के विषम प्रदेशों में बनाया जाता। किसान अपनी फसल को सुरक्षित रखने के लिए उसे यहाँ ढोकर ले जाते ।”
घर के बाहर, जंगलों में धान्य को सुरक्षित रखने के लिए फूस और पत्तियों के बुंगे (वलय ) बनाते, और इनके अन्दर की जमीन को गोबर से लोपा जाता।६ अनाज के गोलाकार ढेर को पुंज, और लम्बाकार ढेर को राशि कहते थे। दीवाल ( भित्ति) और कुड्य से लगाकर ढेर बनाये जाते; इन्हें राख से अंकित कर, ऊपर से गोबर लीप दिया जाता, अथवा उन्हें अपेक्षित प्रदेश में रखकर बांस और फूस से ढक दिया जाता। वर्षा ऋतु में अनाज को मिट्टी अथवा बांस (पल्ल ) के बने हुए कोठों ( कोट्ठ), बाँस के खम्भों ( मंच ) पर बने
१. बृहत्कल्पभाष्य १.१२१२ ।
२. बृहत्कल्पभाष्य २.३३०१ वृत्ति, ३३६७ । शालि के अन्य भेदों के लिये देखिये सुश्रुत १.४६.३ ।।
३. स्थानांग ( ४.३५५ ) में चार प्रकार की खेती बताई गई हैवापिता ( धान्य का एक बार बो देना ), परिवापिता ( दो-तीन बार करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोपना ), निंदिता ( खेतों की घास आदि निराकर धान्य बोना ), परिनिंदिता ( दो-तीन बार घास आदि निराना )।
४. ज्ञातृधर्मकथा ७, पृ० ८६ । ५. बृहत्कल्पभाष्य १.१०६२। ६. वही २.३२६८। ७. वही २.३३११ श्रादि । .....