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( १२ ) इसे ऋषिपतन, और यहां के सुन्दर उद्यान ( दाव ) में मृग स्वछन्द विचरण करते थे, इसलिए इसे मृगदाव कहने लगे। यह स्थान आजकल बनारस के पास सारनाथ के रूप में प्रसिद्ध है।
. भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी जैन आगम साहित्य का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है, विशेषकर चूर्णी और टीका साहित्य में कितने ही शब्दों की सुस्पष्ट व्याख्यायें दी हैं, जो अन्यन्त्र नहीं मिलतीं। उदाहरण के लिए 'सुवण' ( निद्दावसगमन = निद्रा के वश होना = सोना ), 'हत्थ' ( हसति अनेन मुखं आवृत्य = जिससे मुंह को ढंककर हंसा जाये = हाथ), 'जुम' ( बलिदाणखंधे आरोविज्जइ = जो बैलों के कंधों पर रक्खा जाये = जूआ ), 'पलास' ( कोमलबडादिपत्तं = बड़ आदि का कोमल पत्ता = ढाक का पत्ता ), 'खल्लग' (वटादिपत्रकृतानि भाजनानि दूतानि-बड़ इत्यादि पत्तों के बने दौने ), 'छिन्नाल' (छिन्ना नाम येऽगम्यगमनाद्यपराधकारित्वेन च्छिन्नहस्तपादनासादयः कृताः = अगम्यगमन आदि के अपराध के कारण जिसके हाथ, पैर और नाक आदि खिन्न कर दिये गये हों- छिनाल ), 'उज्जल्ल' ( उत् प्राबल्येन मलिन शरीर = जिसका शरीर अत्यन्त मलिन हो; तुलना कीजिए हिन्दी के 'उज्वल' शब्द के साथ ). आदि शब्दों की व्युत्पत्तियां ध्यान देने योग्य हैं। इसी प्रकार 'तुप्प' ( मृत शरीर की चर्बी, लेकिन मराठी में तूप का अर्थ घी होता है ), 'चुल्ली' (चूल्हा ), सुप्प ( सूप ), मुइंग (चींटी, मराठी में मुंगो), तक्क ( मराठी में ताक), छासी (छाछ), गोरुव (प्रशस्त गाय, बंगाली में गोरू ), खुरप्पग (खुरपा ), खलहाण (खलिहान ), बप्प ( बाप ), थालिय (थाली), बइल्ल (बैल), पीढग ( पोढ़ा), गेंदुग ( गेंद ), डगल ( साधुओं के टट्टी पोंछने के पाषाण आदि के ढेले ), चिक्कण (चिकना ), कुहाड़ (कुहाड़ा), चालिणि ( छलनी), बद्दल (बादल), जक्ख (यक्ष = श्वान), अक्खाड ( अखाड़ा ), कहकह ( कहकहा लगाना ), जुन्न ( जीर्ण, गुजराती में जूना ), पाहुण ( पाहुना ), छप्पइ (छह पैर वाली = जूं ), जड्ड ( हाथी ), कयल ( केला ), गोब्बर ( गोबर ), उव्वट्टण ( उबटन ), उक्कुरड (कूरडी या कूडी ), गड्डा ( गड्ढा ), विटप ( अंगूठी, बीटी गुजराती में), फेल्लसण ( फिसलना ), सुगेहिया (जिसका अच्छा घर हो = बया पक्षी ), दुस्सिय (दूष्य वस्त्र के व्यापारी, महाराष्ट्र और गुजरात के दोशी), सोट्टा ( सोटा ), कोल्हुक ( कोल्हू ), चाउल ( चावलों का धोवन ), बेट्टिया (राजकुमारी; बेटी ), वेस्सा ( द्वेष्या = अनिष्टा; वेश्या) आदि प्राकृत के शब्द उल्लेखनीय हैं जिनका संस्कृत से बहुत कम सम्बन्ध है। दुर्भाग्य से प्राकृत शब्दों के संस्कृतीकरण की प्रवृत्ति विद्वत्समाज में आज भी कम नहीं है।