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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
कर, कूणिक चेटक के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा ।' भृगुकच्छ के राजा नहपान को पराजित करने के लिए प्रतिष्ठान का राजा शालिवाहन प्रतिवर्ष भृगुकच्छ को घेर लेता था । काशी-कोसल आदि के छह राजाओं के दूतों को मिथिला के राजा कुम्भक ने जब अपमानित करके लौटा दिया तो उन्होंने मिथिला को चारों ओर से घेर लिया, जिससे नगरवासी इधर-उधर भाग कर न जा सकें । इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए राजा अपने नगर की किलेबन्दी बड़ी मजबूती से किया करते थे । नगर के चारों ओर परकोटा ( प्राकार ), परिखा, तथा गोपुर ( किले का दरवाजा ) और अट्टालिकाएं आदि बनायी जातीं, तथा चक्र, गदा, मुसुंढी, अवरोध, शतघ्नी और कपाट आदि लगाकर नगर की रक्षा को जाती ।"
युद्धों में कूटनीति का बड़ा महत्व था । युद्धनीति में निष्णात मन्त्री अपनी चतुराई, बुद्धिमत्ता और कला-कौशल द्वारा ऐसे अनेक प्रयत्न करते जिससे शत्रुपक्ष को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया जा सके । उज्जैनी के राजा प्रद्योत ने जब राजगृह पर आक्रमण करने का इरादा किया तो राजा श्रेणिक के कुशल मन्त्रो अभयकुमार ने प्रद्योत की सेना के पड़ाव के स्थान पर पहले से ही लोहे के कलशों में दीनारें भरवा कर गड़वा दीं । प्रद्योत जब अपने आक्रमण में सफल हो गया तो अभयकुमार ने प्रद्योत के पास दूत भेजकर कहलवाया - " तुम नहीं जानते श्रेणिक ने पहले ही तुम्हारे सैनिकों को रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया है।”३ चारकर्म कूटनीति का मुख्य अङ्ग था । शत्रुसेना की
१. श्रावश्यक चूर्णी २, पृ० १७३ ।
२. श्रावश्यकनियुक्ति १२६६; आवश्यकचूर्णी २, पृ० २०० आदि । ३. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ० १११-११२ ।
४. प्राकार कई प्रकार के बताये गये हैं । द्वारिका नगरी का प्राकार पाषाण
का, नन्दपुर का ईंटों का और सुमनोमुख नगर का प्राकार मृत्तिका का बना
थे । गाँवों की रक्षा के
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हुआ था । बहुत से नगरों के प्राकार काष्ठ के बने रहते लिए उसके चारों ओर बांस अथवा बबूल के कांटे भाष्य १. १२३ ।
लगा देते थे । बृहत्कल्प
५. उत्तराध्ययन ६.१८; औपपातिक १, पृ० ५ । ६. श्रावश्यकचूर्णी २, पृ० १५६ ।