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६६ . जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज बैठने का सौभाग्य किसी श्रेष्ठी या वेश्या आदि को ही प्राप्त होता।" राजाओं के रथ सबसे बढ़कर होते, उनकी गणना रत्नों में की जाती। उज्जयिनी के राजा प्रद्योत के अग्निभीरु रथ पर अग्नि का कोई असर नहीं होता था।
प्राचीन जैनग्रन्थों में सेनापति, गृहपति, वर्धकी, पुरोहित और स्त्री के साथ-साथ हस्ति और अश्व को भी रत्नों में गिना गया है। मौर्यकाल में हाथी का वध करने का निषेध था, और जो कोई उसका वध करता उसे फांसी की सजा दी जाती। ___ हाथियों की अनेक जातियाँ होती थीं। गंधहस्ति को सर्वोत्तम बताया गया है। ऐरावण इन्द्र के हाथी का नाम था। उत्तम हाथी के सम्बन्ध में कहा है कि वह सात हाथ ऊँचा, नौ हाथ चौड़ा, मध्य भाग में दस हाथ, पाद-पुच्छ आदि सात अङ्गों से सुप्रतिष्ठित, सौम्य, प्रमाणयुक्त, सिर उसका उठा हुआ, सुख-आसन से युक्त, पृष्ठ भाग शूकर के समान, उन्नत और मांसल कुक्षि, प्रलम्बमान उदर, लम्बी सूंड, लम्बे ओंठ, धनुष के पृष्ठभाग के समान आकृति, सुश्लिष्ट प्रमाणयुक्त दृढ़ शरीर, सटी हुई प्रमाणयुक्त पुच्छ, पूर्ण और सुन्दर कछुए के समान चरण, शुक्ल वर्ण, निमल और स्निग्ध त्वचा तथा स्फोट आदि
१. ज्ञातृधर्मकथा ३, पृ० ५६; आवश्यकचूर्णी पृ० १८८ । हेमचन्द्र प्राचार्य ने अभिधानचिन्तामणि ( पृ० ३०० ) में मरुद्रथ, योग्यारथ, अध्वरथ
और कर्णीरथ का उल्लेख किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र २.३३.४६-५१.५ में देवरथ ( देवी-देवताओं की सवारी के लिए काम में आनेवाला ), पुष्परथ ( विवाह आदि उत्सवों के अवसर पर काम में आनेवाला ), संग्रामिक ( युद्ध में काम में आनेवाला ), परियानिक (साधारण यात्रा के काम में आनेवाला ) तथा परपुराभियानिक ( शत्रु के दुर्ग को तोड़ने में उपयोगी ) और वैनयिक (घोड़े आदि को शिक्षित करने में उपयोगी) रथों का उल्लेख मिलता है ।
२. स्थानांग ५५८ । ३. अर्थशास्त्र २.२.२०.६ ।
४. श्रेणिक के सेचनक हस्ति और कृष्ण के विजय हस्ति को गंधहस्ति कहा. गया है। यह हस्ति अपने यूथ का अधिपति होता था और अपनी गंध से अन्य हस्तियों को आकृष्ट करता था, आवश्यकचूर्णी २, पृ. १७०; ज्ञातृधर्मकथा पृ० १०० अ। बृहत्कल्पभाष्य १.२०१० में श्रमणसंघ के प्राचार्य को 'श्रमण वरगंधहस्ती' कहकर उल्लिखित किया है ।