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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
दोनों में युद्ध हुआ । युद्ध में प्रद्योत की जय हुई और दुर्मुख को उसके पैर में कड़ा डालकर बन्दी बना लिया गया । '
चम्पा के राजा कूणिक का वैशाली के गणराजा चेटक के साथ सेचनक गंधहस्त और अठारह लड़ी के कीमती हार को लेकर भीषण युद्ध हुआ, जिसमें विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया गया । सकल राज्य-प्रधान धवल हस्ती को लेकर नमिराजा का अपने भाई चन्द्रयश के साथ युद्ध छिड़ गया । नमिराजा का हस्ती खम्भा तुड़ाकर भाग गया था, चन्द्रयश ने उसे पकड़ लिया और माँगने पर भी नहीं दिया । चन्द्रयश ने कहा कि किसी के रत्नों पर नाम नहीं लिखा रहता, जो उन्हें बाहुबल से प्राप्त कर ले वे उसी के हो जाते हैं ।
प्रायः सीमाप्रान्त को लेकर प्रत्यन्त राजाओं में युद्ध ठन जाया करते । कभी विदेशी राजाओं का भी आक्रमण हो जाता । क्षितिप्रतिष्ठित नगर में म्लेच्छ राजा का आक्रमण होने पर वहाँ के राजा ने घोषणा कराई कि सब लोग दुर्ग में घुसकर बैठ जायें | 3 चक्रवर्ती राजा अपने दल-बल सहित दिग्विजय करने के लिए प्रस्थान करते और समस्त प्रदेशों पर अपना अधिकार जमा लेते । ऋषभदेव के पुत्र प्रथम भरत चक्रवर्ती की कथा जैनसूत्रों में आती है । अपनी आयुधशाला के चक्ररत्न को सहायता से उन्होंने जम्बूद्वीप के मगध, वरदाम और प्रभास नाम के पवित्र तीर्थों और सिंधुदेवी पर विजय प्राप्त की । चर्मरत्न की सहायता से उन्होंने सिंहल, बब्बर, अंग, किरात, यवनद्वीप, आरबक, रोमक, अलसंड ( एलेक्ज़ ण्ड्रिया ), तथा पिक्खुर, कालमुह और जोणक नामक म्लेच्छों, वैताढ्य पर्वत के दक्षिणवासी म्लेच्छों, तथा दक्षिण-पश्चिम प्रदेश से लगाकर सिंध सागर तक के प्रदेशों और रमणीय कच्छ को अपने अधिकार में कर लिया । तत्पश्चात् तिमिसगुहा में प्रवेश किया और इसका दक्षिण द्वार खोलने के लिए अपने सेनापति को आदेश दिया । यहाँ पर उन्होंने उम्मग्गजला और निम्भग्गजला नाम को नदियाँ पार कीं, तथा अवाड नाम के वीर और लड़ाकू किरातों पर विजय प्राप्त की, जो अर्धभरत के उत्तरी खण्ड में निवास करते थे । फिर क्षुद्र हिमवत को जीत कर वे ऋषभकूट पर्वत
१, उत्तराध्ययनटीका ६, पृ० १३५ आदि ।
२. वही पृ० १४० आदि । ३. निशीथभाष्य १६.६०७६ ।