________________
जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
राजगृह का कारागार
राजगृह में धन्य नाम का एक सार्थवाह रहता था । एक बार कोई अपराध हो जाने पर नगर-रक्षकों ने उसे पकड़कर जेल में डाल दिया । उसी कारागार में धन्य के पुत्र का हत्यारा विजय चोर भो सजा काट रहा था । दोनों को एक खोड़ में बाँध दिया जाता, इससे दोनों को सदा साथ-साथ रहना पड़ता था । धन्य की स्त्री ग्रातःकाल भोजन तैयार कर उसे भोजन-पिटक (टिफिन ) में भर दासचेट के हाथ अपने पति के लिए भेजा करती । एक दिन विजय चोर ने धन्य के पिटक में से भोजन माँगा, लेकिन धन्य ने देने से मना कर दिया । एक दिन भोजन के उपरान्त धन्य को शौच की हाजत हुई; धन्य ने विजय से एकान्त स्थान में चलने को कहा । विजय ने उत्तर दिया कि तुम तो खूब खाते-पीते और मौज करते हो, इसलिए तुम्हारा शौच जाना स्वाभाविक है, लेकिन मुझे तो रोज कोड़े खाने पड़ते हैं, और मैं सदा भूख-प्यास से पीड़ित रहता हूँ । यह कहकर विजय ने धन्य के साथ जाने से इन्कार कर दिया। थोड़ी देर बाद धन्य ने फिर से विजय से चलने को कहा । अन्त में इस बात पर फैसला हुआ कि धन्य उसे भी अपने भोजन में से खाने को दिया करेगा । कुछ दिनों बाद अपने इष्ट मित्रों के प्रभाव से बहुत-सा धन खर्च करके धन्य कारागार से छूट गया । सर्वप्रथम क्षौरकर्म कराने के लिए वह अलंकारिक-सभा' (सैलून ) में गया । वहाँ से पुष्करिणी में स्नान कर उसने नगर में प्रवेश किया । उसे देख कर उसके सगे-सम्बन्धी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसका आदर-सत्कार किया ।
राजा श्रेणिक को भी राजगृह के कारागार में कुछ समय तक कैदी बनाकर रक्खा गया था । प्रातः काल और सायंकाल उसे कोड़ों से पीटा जाता, भोजन-पान उसका बन्द कर दिया गया था और किसी को उससे मिलने की आज्ञा नहीं थी । कुछ समय बाद उसकी रानी
६०
९. अलंकारिक-सभा में वेतन देकर अनेक नाई रक्खे जाते थे । ये श्रमण, अनाथ, ग्लान, रोगी और दुर्बलों का अलंकार-कर्म करते थे, ज्ञातृधर्मकथा १३, पृ० १४३ ।
२. ज्ञातृधर्मकथा २, पृ० ५४-५७; जातकों में कैदियों के कठोर जीवन के लिए देखिए रतिलाल मेहता, प्री-बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० १५६ ।