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___ तीसरा अध्याय : अपराध और दण्ड ८१ अवसर पाकर अगडदत्त ने उसे अपनी तलवार से मार डाला ।' , दुर्योधन नाम का चोर शंखपुर के रास्ते में पड़नेवाले एक महान् जङ्गल में निवास करता था। कंटक और सुकंटक नाम के चोर सेनापतियों का उल्लेख मिलता है ।
दण्डविधान चोरी करनेपर भयंकर दण्ड दिया जाता था। राजा चोरों को जीते जी लोहे के कुंभ में बंद कर देते, उनके हाथ कटवा देते और शूली पर चढ़ा देना तो साधारण बात थी। एक बार की बात है, किसी ब्राह्मण ने एक बनिये की रुपयों की थैली चुरा ली। राजा ने हुकुम दिया कि अपराधी को सौ कोड़े लगाये जायें, नहीं तो विष्ठा खिलाई जाये । ब्राह्मण ने कोड़े खाना मंजूर कर लिया, लेकिन कोड़ों की मार न सह सकने के कारण उसने बीच में ही विष्ठा भक्षण करने की इच्छा व्यक्त की।
राज-कर्मचारी चोरों को वस्त्रयुगल पहनाते, गले में कनेर के पुष्पों को माला डालते, और उनके शरीर को तेल से सिक्त कर उस पर भस्म लगाते । फिर उन्हें नगर के चौराहों पर घुमाया जाता, चूंसों, लातों, डंडों और कोड़ों से पीटा जाता, उनके आंठ, नाक और कान काट
१. मूलदेव और रोहिणेय आदि चोरों को कथाएँ भी जैन-ग्रंथों में आती हैं । जब रोहिणेय के पिता का देहान्त हो गया तो रोहिणेय की माँ ने अपने पुत्र को पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चले आते हुए चोरी के पेशे को स्वीकार करने के लिए कहा। सबसे पहली चोरी के अवसर पर रोहिणेय की माँ ने अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरकर सात बत्तियों का दीपक जलाया और मस्तक पर तिलक कर के उसे श्राशीर्वाद दिया। आगे चलकर, बौद्ध-ग्रंथों के अंगुलिमाल की भाँति, रोहिणेय भी श्रमणधर्म में दीक्षित हो गया। देखिए व्यवहारभाष्य २.३०४, हेमचन्द्र, योगशास्त्रटीका, पृ० ११६-अ आदि; एच० एम० जॉनसन का लेख, जर्नल ऑव ओरिण्टियल सोसाइटी, जिल्द ४४, पृ० १-१०; याज्ञवल्क्यस्मृति, २.२३.२७३।
२. उत्तराध्ययनटीका, ४, पृ०८६-अ। ३. वही, १३, पृ० १६२-अ । ---- ४. आचारांगचूर्णी २, पृ० ६५ । . ६ जै० भा० .......