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________________ न्यायविनिश्चयविवरण मुक्त हो चुकी हैं उनका भी स्वाभाविक शुद्ध परिणमन ही होता है। और धर्मादि द्रव्योंकी तरह उनमें भी अगुरुलघु गुणकृत ही उत्पाद और व्यय होते हैं। संसारी आत्माओंमें संसारकालतक कर्मबद्ध होनेके कारण विभावपरिणति होती है। एक बार मुक्त हो जानेके बाद याने विभावपरिणतिकी श्रृंखला टूट जानेके बाद फिर विभाव-परिणतिका कोई कारण नहीं रहता। संसारी आत्मामें कर्मबद्ध जीव और पुद्गल दोनोंके निमित्तसे विकार होता है। पुद्गल द्रव्य शुद्ध हो जाने पर भी अशुद्ध हो जाते हैं और अशुद्ध होकर भी शुद्ध । ये अशुद्ध जीवसे प्रभावित होते हैं और परस्पर पुतलोंसे, अन्ततः कर्मबद्ध आत्माओं से भी। पुद्गल परमाणुओंके विविध विचित्र स्कन्धोंका दृश्य रूप ही संसार है। बौद्ध दर्शनमें यदि वस्तुतः चित्त-सन्ततिके सर्वथा उच्छेद होनेको निर्वाण माना है तो उसकी यह एक मौलिक भूल है क्योंकि उस चित्त-सन्ततिका कोई मौलिकत्व ही नहीं यदि वह कभी भी उच्छिन्न हो जाती है। द्रव्यके सामान्य विशेषात्मकत्व और उत्पादन्ययध्रौव्यात्मकत्वकी विशेष चर्चा मैंने इसी ग्रन्थके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें विशेषरूपसे की है। इसी तरह सप्तभङ्गी और स्याद्वादकी चर्चा भी वहींसे पढ़ लेनी चाहिए। हिन्दू विश्वविद्यालय । बनारस २६।१२।५४ -महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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