SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना नहीं हो सकता। इसी तरह यदि आत्माको सर्वथा क्षणिक याने प्रतिक्षण निरन्वय विनाशी माना जाय तो बँधेगा कोई दूसरा क्षण और मुक्त होगा कोई दूसरा ही । बन्धन और मोक्षकी एकाधिकरणता आत्माकी ध्रौव्य परिणतिके बिना नहीं सध सकती । अतः जिस आत्मामें आस्रव होता है, जो बंधती है और जो अपने तप ध्यानादि चारित्रसे नूतन कर्मों का संवर करती है और समस्त कर्मोका क्षय कर मुक्त होती है उस मुख्य आधारभूत आत्मद्रव्यको जानना और मानना उपयोगी ही नहीं, वस्तुस्थितिके अनुकूल भी है। यहाँ प्रश्न यह है कि यदि आत्मा स्वभावसे शुद्ध चैतन्यरूप है तो उसमें रागादि विकार कैसे क्यों और कब उत्पन्न हुए ? इसका उत्तर विधि रूपसे नहीं दिया जा सकता क्योंकि अनादिकालसे आत्मा खदानमें पड़े हुए सोनेकी तरह मलिन ही मिलता आया है। जिस प्रकार खदानसे निकला सोना अग्नि आदि शोधक उपायोंसे निर्मल १००टंचका बना लिया जाता है उसी तरह तप चरित्र आदि शोधक अनुष्ठानों से आत्माके रागादि मल दूर किये जा सकते हैं । आत्माकी यही निर्मल अवस्था मोक्ष है। जिस प्रकार किट कालिमा आदिके सम्पर्क से स्वर्ण मलिन था उसी तरह कर्मपुद्गलोंके सम्बन्धसे आत्मा भी मलिन था। अतः उस कर्मपुद्गलका परिज्ञान भी आवश्यक है जिसके सम्पर्कसे आत्मा मलिन होता रहा है और जिसके विश्लेषणसे मुक्त हो सकता है । चूंकि राग अज्ञानादि भाव आत्माके स्वरूप नहीं हैं, निमित्तजन्य विभाव हैं, अतः निमित्तके हट जानेपर वह अपनी स्वाभाविक शुद्ध दशामें आ जाता है। जबतक कर्मका सम्पर्क है तबतक पूर्व रागादिसे नूतन कर्म और उन कमौके उदयसे रागादि इस प्रकार बीजांकुरकी तरह यह संसार-चक्र बराबर चलता रहता है। अतः जैन तत्त्वमीमांसामें जीवके साथ ही साथ उस पुद्गलका परिज्ञान भी आवश्यक बताया गया है जिसके सम्बन्धसे यह जगत्जाल रचा जाता है। इसी तरह आत्मासे भिन्न धर्मादि द्रव्योंका भी जो कि अजीवतत्वमें शामिल हैं भेदविज्ञानके लिए जानना आधश्यक है। बिना इनके जाने तत्व मीमांसा पूर्ण नहीं होती। द्रव्य-जो कालक्रमसे होनेवाली अपनी पर्यायोंमें द्रवणशील अर्थात् अनुस्यूत हो वह द्रव्य है। दव्य सत् होता है। यह प्रतिक्षण परिवर्तनशील होकर कभी भी अपनी मौलिकसत्तासे सर्वथा च्युत नहीं होता । जगत् अनादि सिद्ध द्रव्योंकी आँखमिचौनी मात्र है। द्रव्यकी एक पर्याय उत्पन्न होती है और एक नष्ट । कोई भी द्रव्य इस उत्पादव्यथचक्रका अपवाद नहीं है। प्रत्येक सत् उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्यरूपसे विलक्षण है। द्रव्यव्यवस्थाका यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि किसी असत्का अर्थात् नूतन सत्का उत्पाद नहीं होता और न जो वर्तमान सत् है उसका सर्वथा विनाश ही। जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है "भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावरस चेव उप्पादो।" अथवा "एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो।" -पञ्चास्तिकाय गाथा १५, १७ अर्थात् अभाव या असत्का उत्पाद नहीं होता और न भाव या सत्का विनाश ही । यही बात गीताके इस श्लोकमें प्रतिपादित है"नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।" -भगवद्गीता २०१६ तात्पर्य यह कि जगत्में जितने सत् या द्रव्य हैं उनकी संख्यामें न तो एककी न्यूनता ही होती है और न एककी अधिकता ही। अनन्त जीव, अनन्त पुद्गल, असंख्य कालाणु द्रव्य, एक आकाश, एक व्य और एक अधर्मद्रव्य इस तरह ये सत अनादि कालसे अनन्तकालतक रहेंगे। इनमें धर्म, अधर्म. आकाश और काल इन द्रव्योंका सदा स्वाभाविक सदृश परिणमन ही होता है। इनमें कभी भी विकार परिणति नहीं होती। चूंकि सत्का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता यह एक निरपवाद लक्षण है अतः इन द्रव्यों में अगुरुलघुगुणकृत उत्पाद और व्यय प्रतिक्षण होता रहता है। आत्मद्रव्यमें जो आत्माएँ सिद्ध अर्थात्
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy