________________
३८
न्यायविनिश्चयविवरण
1
जिन १० या १४ बातों को अव्याकृत' कहा है उनमें प्रमुख रूपसे आत्मा और लोक सम्बन्धी प्रश्न ही हैं। इसका कारण भी उन्होंने बताया है कि इनके बारेमें कुछ कहना सार्थक नहीं है और भिक्षुचर्याके लिए उपयोगी नहीं है और न यह निर्वेद, निरोध, शान्ति, परमज्ञान या निर्वाणके लिए ही आवश्यक है। कौन ऐसा मुमुक्षु होगा जो अपनी चित्तसन्ततिके उच्छेद के लिए प्रयत्न या अनुष्ठान करेगा। चार्वाककी आत्मा गर्भ से मरण पर्यन्त रहती है और बुद्धकी चित्तसन्तति निर्वाण पर्यन्त । यदि निर्वाणमें उसका समूलोच्छेद हो जाता है तो चार्वाकके सिद्धान्तसे कोई विशेषता नहीं रहती । बुद्धने अपनेको अशाश्वतअनुच्छेदवादी कहा है । वे न तो आत्माको उपनिषद् वादियोंकी तरह सर्वथा शाश्वत मानना चाहते थे और न भौतिकवादियोंकी तरह सर्वथा उच्छिन्न ही, इसीलिए उन्होंने उन दोनों अन्तोंसे बचने के लिए अपने मतको दो नकारोंसे सूचित किया है । जो बुद्ध अपनेको अनुच्छेदवादी कहते हैं उन्होंने निर्वाणको कैसे प्रदीपनिर्वाणकी तरह चित्त-सन्ततिके उच्छेद रूपसे कहा होगा ? इसीलिए दार्शनिक क्षेत्र में निरास्रव चित्त सन्ततिरूप निर्वाण माननेका भी एक पक्ष मिलता है और यही युक्तियुक्त भी है । तत्त्वसंग्रह पंजिका ( पृ० १०४ ) में एक प्राचीन श्लोक संसार और निर्वाणके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाला है—
उष्टत
"चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदैव तैर्विर्निमुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥”
1
अर्थात् चित्त जब रागादि दोष और क्लेश संस्कार से संयुक्त रहता है तब संसार कहा जाता है और जब तदेव - वही चित्त रागादि क्लेश वासनाओंसे रहित होकर निरास्रव बन जाता है तब उसे भवान्त अर्थात् निर्वाण कहते हैं । शान्तरक्षित ( तत्त्वसंग्रह पृ० १८४) तो बहुत स्पष्ट लिखते हैं कि “मुक्तिर्निर्मलता धियः " अर्थात् धी-चित्तकी निर्मलताको मुक्ति कहते हैं । माध्यमिकवृत्ति' में निर्वाणपरीक्षा के पूर्वपक्ष में सोपधिशेष और निरुपधिशेष निर्वाणोंका वर्णन है । सोपधिशेष निर्वाणमें रागादिका नाश होकर ५ स्कन्ध जिन्हें जीव कहते हैं, निरास्रव दशामें रहते हैं, जब कि निरुपधिशेष निर्वाण में वे भी नष्ट हो जाते हैं बौद्ध परम्परा में निर्वाणकी इन धाराओंके बीज बुद्धके निर्वाणको अव्याकृत कहने में ही निहित हैं । इसी असंगतिका परिहार करनेके लिए जैन परम्परामें मोक्षको उसी आत्माकी शुद्ध दशा-रूप बताया गया है जो कि बन्धनबद्ध था । आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक तत्त्व है जो अनादिसे अनन्तकाल तक प्रतिक्षण परिवर्तन करनेपर भी अपनी सत्ताका विच्छेद नहीं होने देता । त्रैकालिक अविच्छिन्नसत्ता ही द्रव्यका प्राण है । यदि आमाको सर्वथा नित्य याने अपरिणमनशील माना जाता है तो उसमें बन्धन और मोक्ष ये दो अवस्थाएँ नहीं बन सकेंगी। वह या तो बद्ध होगा या मुक्त। पहले बँधना और पीछे मुक्त होना परिणमनके विना
१ लोक नित्य है, अनित्य है, नित्य अनित्य है, न नित्य न अनित्य है; लोक अन्तवान् है, नहीं है, है नहीं न हैन नहीं है, निर्वाणके बाद तथागत होते हैं, नहीं होते, होते नहीं होते, न होते न नहीं होते; जीव शरीरसे भिन्न है, जीव शरीरसे भिन्न नहीं है । ( माध्यमिक वृत्ति पृ० ४४६ ) इन चौदह वस्तुओंको अव्याकृत कहा है मज्झिम निकाय ( २२३ ) में इनकी संख्या दश है। इसमें आदिके दो प्रश्नोंमें तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिना गया ।
।
२ " इह हि भगवता ... द्विविधं निर्वाणमुपवर्णितं सोपधिशेषं निरुपधिशेषं च । तत्र निरवशेषस्य अवि द्यारागादिकस्य क्लेशगणस्य प्रहाणात् सोपधिशेषं निर्वाणमिष्यते । तत्रोपधीयते अस्मिन् आत्मस्नेह इत्युपधिः । उपधिशब्देन आत्मज्ञप्ति निमित्ताः पञ्चोपादानस्कन्धा उच्यन्ते । शिष्यत इति शेषः । उपधिरेव शेषः उपधिशेषः । सह उपधिशेषेण वर्तते इति सोपधिशेषम् । किं तत् ? निर्वाणम् । तच्च स्कन्धमात्रकमेव केवलं सत्कायदृष्ट्या दिक्लेशतस्कररहितमवशिष्यते निहताशेषचौरगणग्राममात्रावस्थानसाधर्म्येण तत्सोपधिशेषं निर्वा णम् । यत्र तु निर्वाणे स्कन्धमात्रकमपि नास्ति तन्निरुपधिशेषं निर्वाणम् । निर्गत उपधिशेषोऽस्मिन्निति कृत्वा । निहताशेष चौरगंणस्य ग्राममात्रस्यापि विनाशसाधर्म्येण । " - माध्यमिकवृत्ति पृ० ५१९ ।